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समय के साथ केंचुल की तरह उतरते चले जा रहे रिश्ते

संवादी के दूसरे दिन साहित्य के रिश्ते सत्र में तर्क-वितर्क और सहमति-असहमति के बीच बनी राय।

By Anurag GuptaEdited By: Published: Sat, 01 Dec 2018 09:11 PM (IST)Updated: Sat, 01 Dec 2018 09:11 PM (IST)
समय के साथ केंचुल की तरह उतरते चले जा रहे रिश्ते
समय के साथ केंचुल की तरह उतरते चले जा रहे रिश्ते

लखनऊ [हरिशंकर मिश्र]। बात तो साहित्य में रिश्तों से शुरू हुई और फिर बढ़ते-बढ़ते स्त्री विमर्श के उस फलक पर जा पहुंची, जहां विद्रोह भी था, समर्पण भी था और अंतर्संबंधों के द्वंद्व भी। सहमति-असहमति और तर्क-वितर्क के बीच एक राय तो बनी ही कि साहित्य में रिश्तों का दायरा यदि व्यापक हुआ है, विकृतियां आई हैं तो यह आम जनजीवन का ही चित्रण है। समय के दुर्दांत चक्र में रिश्ते केंचुल की तरह उतरते चले जा रहे हैं और साहित्य भी इसका अपवाद नहीं, इसका अक्स ही है।

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मंच पर स्त्री के विद्रोही तेवरों को शब्द देने वाली प्रसिद्ध कथाकार मैत्रेयी पुष्पा हों, रिश्तों में अगाध विश्वास रखने वाली कहानीकार सूर्यबाला हों तो विमर्श को ऊंचाइयां मिलनी ही थीं और लेखक यतींद्र मिश्र ने इसे और सार्थक बना दिया। संचालन कर रही अनुराधा गुप्ता ने जब यह सवाल उठाया कि 80 के दशक से अब तक के साहित्य में रिश्तों में किस तरह का फर्क आया है तो सूर्यबाला को यह कहने में कोई झिझक नहीं हुई कि अब वह गर्मजोशी नहीं रही। रिश्ते अब इस्तेमाल की चीज हो गए हैं। मैत्रेयी पुष्पा ने रिश्तों के दायरे को और विस्तार दिया कि रिश्ते सिर्फ पारिवारिक नहीं होते। प्रेम के होते हैं, मुहब्बत के होते हैं, संवेदना के होते हैं। अपने पात्रों के बारे में उनका कहना था कि वह शोषित, दलित और सताए लोग थे। उनका बातें कहने पर ही मेरे ऊपर 'परिवार तोड़ू' के आरोप लगे।

अनुराधा का अगला सवाल मैत्रेयी पुष्पा के लिए था-'सहानुभूति साहित्य लेखन में कितना मायने रखती है। जो उस पीड़ा से नहीं गुजरा, इंसाफ कर पाएगा क्या?' मैत्रेयी की साफगोई हैरान करने वाली थी-'मैं तो खुद उन्हीं में एक थी। बाईचांस अच्छे घर की बहू बन गई। अच्छी बहू साबित भी नहीं हुई। स्त्री विमर्श लेकर आ गई।' अब यतींद्र मिश्र ने अपने नजरिए से दोनों साहित्यकारों को देखना शुरू किया। उन्होंने कहा कि सिर्फ मैत्रेयी और सूर्यबाला से ही स्त्री विमर्श की बात पूरी नहीं होती। शिवानी, मन्नू भंडारी, नासिरा शर्मा की ओर भी जाना होगा। मनीशा कुलश्रेष्ठ की एक कहानी 'मौसमों के मकान सूखे हैं'का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि अहसास कब सिंपैथी से इंपैथी में बदल जाएगा, कहा नहीं जा सकता। आज कहानी एक फ्रेम में खत्म हो रही है।

सूर्यबाला पर यह आरोप लगा कि उनकी स्त्रियां विद्रोह नहीं करतीं, आक्रामक नहीं हैं तो उन्होंने इसका प्रतिवाद भी नहीं किया-'ऐसा इसलिए है कि मैं शायद खुद इसी टाइप की हूं। वैसे मेरी स्त्रियां गलत को स्वीकार नहीं करतीं।' यतींद्र ने दोनों महिला कथाकारों की तुलना दो प्रसिद्ध गायकों पं. भीमसेन जोशी और उस्ताद अमीर खां साहब से की और कहा कि जैसे दोनों के सुर अलग हैं, उसी तरह मैत्रेयी पुष्पा और सूर्यबाला का लेखन भी है। सूर्यबाला की कोशिश होती होगी कि परिवार संस्था बच जाए, घर का कोई बर्तन टूटने न पाए।

हालांकि मैत्रेयी पुष्पा पुरुष को आदर्शवाद के खांचे में फिट करने पर अभी भी सहमत न थीं। उन्होंने कहा- 'जो पत्नी का बनाया कुछ भी खा ले, हर बात सुन ले, प्रतिवाद न करे...वह पति तो नहीं होगा। ऐसे पात्र क्या जीवन में दिखते हैं। परिवार भले ही बच जाता हो, स्त्री नहीं बचती।'

स्त्री विमर्श की धारा में तल्खी के सुर मिल चुके थे। दो अलग-अलग धाराएं और उनके अलग-अलग तर्क। सूर्यबाला का कहना था कि विद्रोह के लिए पुख्ता जमीन तो होनी चाहिए तो मैत्रेयी का मानों कोई विद्रोही स्त्री पात्र जीवंत हो उठा-'पति-पत्नी का रिश्ता है, उस पर ठप्पा लगा दीजिए। जरूरी नहीं कि उसमें से एक आदमी न निकले या एक औरत न निकले।

बात 'लिव इन रिलेशनशिप' पर चली तो भी यह विरोधाभास कायम रहा। सूर्यबाला ने इसे सहमति न देते हुए यहां तक कह दिया कि आज का पश्चिम ही कल का हमारा भविष्य है, जहां रिश्ते दम तोड़ते जा रहे हैं। जीवन हो या साहित्य, अनुशासन हर जगह जरूरी है। मैत्रेयी पुष्पा का कहना था कि मर्जी न मिले तो अलग हो जाना ही ठीक है। लिव इन में न कोई विधवा है और न सधवा है। जब आपने अपनी मर्जी से साथ रहना मंजूर किया तो मर्जी से अलग होने में क्या बुराई है। फिर क्यों रोना-धोना। 

दबाव होने पर ही विद्रोह होते हैं

सवाल-जवाब के दौर में जर्मनी के बर्लिन शहर से आई सुशीला शर्मा, राहुल सिंह और वाराणसी के डा. राम सुधार सिंह ने सवाल किए। राहुल के एक प्रश्न पर मैत्रेयी ने कहा कि छटपटाहट और दबाव बढऩे पर ही विद्रोह होते हैं। साहित्य तो होता ही है इन दबावों का प्रतिरोध करने के लिए। स्त्री को जो लोकाचार बताए गए, क्या वे पुरुषों को बताए गए। डॉ. राम सुधार ने साहित्य में सेक्स या देहगाथा पर प्रश्न किया तो पलटवार हुआ-' जीवन में सेक्स नहीं है क्या?' यतींद्र मिश्र ने समापन किया कि सेक्स से इतर भी साहित्य है और जीवन के हर पहलू को सामने ला रहा है।

मैत्रेयी पुष्पा ने कहा,'पति ऐसे देवता होते हैं जो प्यार की राह पर लाकर मार डालते हैं। अरे हमारी पढ़ाई देखो, हमारा टैलेंट देखो। मैं ऐसी नायिकाएं नहीं गढ़ सकी जो चाय बनाकर लाएं।'

सूर्यबाला ने कहा,'मेरी स्त्रियों को अपना रोना खुद ही पसंद नहीं। विद्रोह करने का कोई आलंबन तो हो। लोग मुझसे खुद पूछते हैं कि आपको इतनी आदमकद स्त्रियां कहां से मिलीं।

यतींद्र मिश्र ने कहा कि कहानियां रिश्तों में हमेशा आगे बढ़ती रही हैं। पहले थोड़ा टाइप था, मेलोड्रामिक था। आज कहानी एक फ्रेम पर आकर खत्म हो रही है। कहानियों में पूरा महाकाव्य देखा जा सकता है।


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