World Theater Day: उद्घाटन के दो दिन बाद जनाक्रोश की भेंट चढ़ गया था कानपुर का ये थियेटर, जानें; क्यों
World Theater Day 2021 जनरलगंज (इसे जनरलगंज बजाजा के नाम से भी जानते हैं) में वर्ष 1948 में करीब 600 वर्गगज में थियेटर का निर्माण शुरू हुआ और वर्ष 1950 में पूरा हुआ। इसका नाम बाबूराम थियेटर रखा गया। बताते हैं कि तब यहां तीन से चार पिक्चर हॉल थे।
कानपुर, [आलोक शर्मा]। World Theater Day 2021 आज विश्व थियेटर डे है, यानि विश्व रंगमंच दिवस। आपको शहर के एक ऐसे थियेटर के बारे में बताएंगे, जो अस्तित्व में आने के दो दिन बाद ही बंद हो गया था। हालांकि आपको बता दें कि आधुनिकता के दौर में भारत में भी रंगमंच का चलन कम हो गया है। माना जाता है कि भारत के छत्तीसगढ़ में रामगढ़ के पहाड़ पर एक प्राचीनतम नाट्यशाला मौजूद है जो महाकवि कालिदास द्वारा निर्मित है। भारत में हर जगह मल्टीप्लेक्स और दूसरे साधनों के बावजूद भी, सामाजिक मुद्दों पर नुक्कड़ नाटक, रंगमंच पर नाटक काफी प्रचलन में हैं।
विश्व रंगमंच दिवस का इतिहास: अंतरराष्ट्रीय रंगमंच संस्थान द्वारा 1961 इस दिन को मनाने की शुरुआत की गई। इस अवसर पर किसी एक देश के रंगकर्मी द्वारा विश्व रंगमंच दिवस के लिए आधिकारिक संदेश जारी किया जाता है। 1962 में फ्रांस के जीन काक्टे पहला अंतरराष्ट्रीय संदेश देने वाले कलाकार थे। कहा जाता है कि पहला नाटक एथेंस में एक्रोप्लिस में स्थित थिएटर ऑफ डायोनिसस में आयोजित हुआ था। यह नाटक पांचवीं शताब्दी के शुरुआती दौर का माना जाता है। इसके बाद रंगमंच पूरे ग्रीस में बहुत तेजी से फैला।
भारत के रंगमंच ने दिए हैं कई दिग्गज अभिनेता: पृथ्वीराजकपूर, गिरीश कर्नाड, नसीरुद्दीन शाह, परेश रावल, अनुपम खेर, सतीश कौशिक, मनोज बाजपेयी से लेकर पंकज त्रिपाठी तक कई नाम हैं, जिन्होंने रंगमंच से लेकर सिनेमा तक अपने अभिनय की छाप छोड़ा है।
1950 में कानपुर में खुला था थियेटर: आजादी के तीन साल बाद ही कानपुर के जनरलगंज में भी एक थियेटर खुला था। इसे बनने में दो साल लगे थे। इसमें पहला शो चला, जिसके बाद क्षेत्रीय जनता ने विरोध कर दिया। दूसरे दिन के शो पर भी विरोध मुखर हुआ था। इसके बाद प्रशासनिक अधिकारियों ने तीसरा शो चलाने की अनुमति नहीं दी थी। जनरलगंज की तंग गलियों में यह थियेटर वक्त के साथ अब गुम हो चुका है। 1964 में इस बिल्डिंग में लगी आग ने थियेटर का स्वरूप भी बदल दिया। यहां कुछ अवशेष ही बचे हैं, जो टुकड़ों में इसकी कहानी बताते हैं। आसपास रहने वालों में किसी ने थियेटर को चलते हुए नहीं देखा, लेकिन बुजुर्गों से सुनी कहानी जरूरत सुनाते हैं।
ये है कानपुर का जनरलगंज स्थित बाबूराम थियेटर, जहां अब स्टेशनरी की दुकान है।
प्रशासनिक अधिकारियों ने बंद करा दिया था थियेटर: जनरलगंज (इसे जनरलगंज बजाजा के नाम से भी जानते हैं) में वर्ष 1948 में करीब 600 वर्गगज में थियेटर का निर्माण शुरू हुआ और वर्ष 1950 में पूरा हुआ। इसका नाम बाबूराम थियेटर रखा गया। बताते हैं कि तब यहां तीन से चार पिक्चर हॉल थे। पहली फिल्म नर्गिस और दिलीप कुमार की बाबुल लगी। शोर और भीड़ देख क्षेत्रीय लोग भड़क गए। दूसरे दिन के शो पर भी जनाक्रोश कायम रहा। तब कानून व्यवस्था बिगडऩे के डर से प्रशासनिक अधिकारियों ने शो बंद करा दिया। इसके बाद इस थियेटर में कभी फिल्म नहीं लगी।
खुल गया था प्रिंटिंग प्रेस: थियेटर बंद होने के बाद यहां प्रिंटिंग प्रेस खुला। एक मजदूर ने धूमपान करने के बाद जलती बीड़ी फेंक दी, जिससे यहां आग लग गई थी। आग इतनी भीषण थी कि बुझाने में ही दो दिन लग गए। भवन में लगे लोहे के फ्रेम तक गलकर गिर गए थे। वर्तमान में छत पर बिछाया गया लोहे का जाल मौजूद है, जो आग की भयावहता बताता है।
चल रहा स्टेशनरी का कारोबार: बाबूराम थियेटर में जहां हॉल बनाया गया था, वहां अभी स्टेशनरी, पेपर इंडस्ट्री और प्रिंटिंग प्रेस का काम हो रहा है। भूतल पर 17 दुकानें हैं, जहां रंग का बड़ा काम होता है।
इनका ये है कहना: बाबूराम थियेटर के बारे में बुजुर्गों से सुना था। दो दिन चलने के बाद यह बंद हो गया था। सबसे पुरानी रंग की दुकान वर्ष 1952 में दादा शंकर जॉनी ने खोली थी। - शरद कुमार जॉनी, क्षेत्रीय निवासी
शोर और भीड़ के चलते क्षेत्रीय लोगों ने विरोध करके थियेटर को बंद कराया था। फिल्म चलाने की अनुमति दोबारा नहीं दी गई। फर्श पर रोशनी के लिए लोहे के मोटे फ्रेम लगे थे, जिसे आग लगने के बाद तोड़ा गया था। - अजय महेश्वरी, व्यापारी