लंबा हुआ इंतजार, दिन रात की मेहनत का आखिर कब मिलेगा इनाम Kanpur News
राजनीति में महत्वाकांक्षा के अलावा अनदेखी को उजागर करती ये खबर।
कानपुर, जेएनएन। शहर की राजनीति भी गजब की है। जितना तिकड़म जनता के सामने होता है, उससे कहीं ज्यादा पर्दे के पीछे किया जाता है। हालांकि ये आम आदमी को नहीं दिखाई देता। रियल जर्नलिज्म के तहत कुछ ऐसे ही मामलों को सामने ला रहे हैं अपने कॉलम गंगा तीरे में श्रीनारायण मिश्र।
कब बहुरेंगे दिन
भाजपा कार्यकर्ता लंबे समय से नागरिकता संशोधन अधिनियम का प्रचार-प्रसार करने में जुटे हैं। यह कार्यक्रम बीता भी नहीं था कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय की पुण्यतिथि आ गई। इसी तरह आए दिन कार्यक्रम लगाए जा रहे हैं, बावजूद इसके कार्यकर्ताओं को वांछित इनाम नहीं मिल रहा। नगर निगम से लेकर केडीए बोर्ड तक ढेर सारे पद खाली पड़े हैं। कार्यकर्ता दिन रात मेहनत करके यह उम्मीद लगाए हैं कि एक न एक दिन उन्हें अपनी इस मेहनत की एवज में कहीं समायोजित किया जाएगा, लेकिन यह इंतजार विधानसभा चुनाव के बाद से ही लंबा खिंचता जा रहा है। ऐसा नहीं है कि कार्यकर्ता अपनी पीड़ा पहुंचा नहीं रहे हैं, संगठन के पदाधिकारियों तक यह बात लंबे समय से पहुंचाई जा रही है, लेकिन सब अपने में मस्त हैं। ऐसे में निराश एक वरिष्ठ कार्यकर्ता बोले 'घूरे के दिन भी बारह साल में बहुर जाते है, खैर...' उन्होंने लंबी सांस छोड़ी।
जग की यही रीति है...
वैश्विक ख्याति वाले कानपुर में ङ्क्षहदी साहित्य के अभिमान गिरिराज किशोर दुनिया को अलविदा कह गए। जीवन में न जाने कितने नवोदित साहित्यकार उनकी अंगुली पकड़कर चलना सीखे होंगे। चाहे कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बनाना हो या फिर पुस्तक की आलोचना लिखवानी हो। अपनी अभिलाषा लिए न जाने कितने लोग उनकी चौखट तक खिंचे चले जा आते थे। गिरिराज जी किसी को निराश भी नहीं करते थे। सहज भाव से उपलब्ध रहते थे। हालांकि उन्हें अंतिम विदाई देने पहुंचे मुट्ठी भर लोगों को देखकर उनके आत्मीयजनों को गहरी पीड़ा हुई। उनकी अंगुली पकड़कर खड़े होने वाले भी 'जरूरी काम' में फंस गए। दुख के सागर में डूबने का दावा करने वाले भी वक्त न मिलने का बहाना बना गए, किंतु गांधीवादी गिरिराज जी की आत्मा ने इसे सहज ही लिया होगा, क्योंकि जिस समाज को उन्होंने अपनी देह दान कर दी, उसकी रीति उनसे बेहतर भला कौन जान सकता था।
लख्त-ए-जिगर का डर
सैंया भये कोतवाल अब डर काहे का? यह कहावत है, मगर सैंया खुद ही कोतवाल नहीं बनते, 'नेताजी' ही उन्हें बनाते हैं। गंगा घाटों की सफाई घोटाले का आरोप जिस 'अदृश्य हाथ' पर चस्पा है। सीधे-सीधे जिसका नाम लेने से बिठूर विधायक भी कतराते हैं। उस 'अदृश्य हाथ' ने अपने लख्त-ए-जिगर को ही घाटों की सफाई का पहरेदार बना दिया। अब घाट साफ हों न हों, कम से कम कागजों में कोई पकड़कर दिखाए। अब सब कुछ अपने हाथ में ही है, सो सब निश्चिंत हैं, मगर लख्त-ए-जिगर के मन में खौफ समाया है। नेतागीरी और सरकारी नौकरी में यही फर्क है। गड़बड़ी पकड़ी गई तो बदनामी जो होगी सो होगी, नौकरी पर आफत आ जाएगी। योगी जी का तेवर भला कौन नहीं जानता? बात उनके कानों तक पहुंच भी गई है। सो, सारी गोटियां फिट होने के बावजूद कागज पर 'चिडिय़ा बैठाने' में जनाब के हाथ कांप रहे हैं।
ज्ञापन संस्कृति में उलझे
प्रदेश की राजनीति में हाशिये पर पड़ी कांग्रेस में प्राण फूंकने का काम बेशक प्रियंका वाड्रा कर रही हों, लेकिन कांग्रेसी हैं कि ज्ञापन संस्कृति से आगे बढऩा नहीं चाहते। जमीन पर उतरकर, जनता के मुद्दे टटोलकर, उन्हें हल कराने के लिए संघर्ष का माद्दा मानो उन्होंने गंवा दिया है। यही वजह है कि पिछले दिनों सत्तारूढ़ दल की आपसी टकराहट को पार्टी कहीं कैश कराती नहीं दिखी। सांसद और मंत्री भिड़े तो महानगर अध्यक्ष और विधायक ने एक प्रेस कांफ्रेंस करके इतिश्री कर ली। शहर की टूटी सड़कों का मुद्दा हो, शहर में भयानक प्रदूषण या गंदगी का मुद्दा हो, कांग्रेसी हर काम के लिए हाईकमान का इंतजार करते हैं। अब भला हाईकमान को इनकी खबर कहां से मिले। प्रदेश या राष्ट्रीय स्तर पर कोई कार्यक्रम आया तो कांग्रेसी अधिकारियों को ज्ञापन सौंपकर अपना कर्तव्य निभा देते हैं। अब इन्हें कौन बताए कि ये पब्लिक है सब जानती है।