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ये रामलीला है अद़्भुत, दशानन का एक सिर गधे का, डॉक्टर भी नहीं तोड़ सकते लक्ष्मण की मूर्छा

खजुहा में रामलीला की शुरुआत लगभग 550 वर्ष पूर्व हुई थी।

By AbhishekEdited By: Published: Mon, 07 Oct 2019 12:57 PM (IST)Updated: Mon, 07 Oct 2019 12:57 PM (IST)
ये रामलीला है अद़्भुत, दशानन का एक सिर गधे का, डॉक्टर भी नहीं तोड़ सकते लक्ष्मण की मूर्छा
ये रामलीला है अद़्भुत, दशानन का एक सिर गधे का, डॉक्टर भी नहीं तोड़ सकते लक्ष्मण की मूर्छा

कानपुर, [उमेश शुक्ल]। उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जनपद में छोटी काशी के नाम से मशहूर खजुहा कस्बे की 550 वर्षों से दशहरे पर होने वाली रामलीला में कुछ तो अद्भुत हैं। यहां की रामलीला देखने वाले भी एक बारगी आश्चर्य में पड़ जाते हैं। यहां पर न तो रावण का पुतला जलाया जाता है और न ही पहले श्रीराम को पूजा जाता है। इतना ही नहीं लक्ष्मण की मूर्छा भी काल्पनिक नहीं बल्कि हकीकत होती है। लोगों की मानें तो मेघनाद द्वारा मंत्रों से दी गई मूर्छा को कोई डॉक्टर भी नहीं तोड़ सकता है।

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स्वर्णिम अतीत की कहानी बयां करता खजुहा

खजुहा में 118 अद्भुत शिव मंदिर व इतने ही कुएं हैं। यहां मुगल रोड पर विशालकाय फाटक और सरायं स्थित है, जो कस्बे के स्वर्णिम अतीत की कहानी बयां करती है। मुगल रोड के उत्तर में रामजानकी मंदिर, पांच विशालकाय तालाब, बनारस के समान प्रत्येक गली में कुएं पुराने वैभव और भव्यता के प्रतीक हैं। खजुहा में रामलीला की शुरुआत लगभग 550 वर्ष पूर्व हुई थी। इसका उल्लेख वंशावली पुस्तक में मिलता है।

इस तरह शुरू होती रामलीला

रामलीला का आयोजन समिति के अध्यक्ष दयाराम उत्तम बताते हैं कि बुजुर्गों से सुनने को मिलता आ रहा है कि रामलीला को करीब 550 साल हो चुके हैं। रामलीला से े पहले यहां ऐतिहासिक मेला भादो मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया (हरितालिका तीज) से शुरू हो जाता है। इस दिन ग्रामवासी शंख, घंटा, ढोल, मंजीरा लेकर गांव के बाहर स्थित नरहिया झील से मिट्टी, कुश आदि निकालकर लाते हैं। इनसे ही गणेश प्रतिमा का निर्माण होता है। दशहरा के दिन गणेश प्रतिमा की पूजा के बाद ही रामलीला शुरू होती है। यहां श्रीराम से पहले रावण की पूजा की जाती है। यहां परंपरा यहां वर्षों से चली आ रही है।

यहां पर की जाती रावण की तेरहवीं

रामलीला में सभी स्वरूप (पुतले) लकड़ी, कुश, सूमा से बनाए जाते हैं तथा उनके ऊपर टाट के बोरे चढ़ाकर रंगीन कपड़ा सिला जाता है। रावण, मेघनाथ, कुंभकरण के पुतले 50 से 60 फिट ऊंचे और 15 से 20 फिट चौड़े होते हैं। दिन में रावण-मंदोदरी, मेघनाद, कुंभकर्ण एवं विभीषण आदि के इन विशालकाय पुतलों को नगर में घुमाया जाता है। रावण के दस सिर (इनमें एक सिर गधे का होता है) और बीस हाथ होते हैं। सिर का वजन लगभग दस क्विंटल का होता है। रावण को जलाया नहीं जाता है, उसकी बाकायदा तेरहवीं भी होती है। एक सिर गधे का होने और पुतला न जलाने को लेकर बुजुर्ग बताते हैं कि कई वर्षों से यही परंपरा चली आ रही है। इसके पीछे का कारण अबतक कोई नहीं जानता है।

रावण पर चलाए तीरों की पूजा करते ग्रामीण

भारी भरकम पुतले की लकड़ी के पहिएनुमा पैरों पर सवारी निकाली जाती है। राम, लक्ष्मण, भरत, शुत्रघ्न के लिए लकड़ी के पहिए वाले घोड़े होते हैं जिन पर बैठकर वे युद्ध करते हैं। पहले इन घोड़ों को जेवरात से सजाया जाता था, किंतु बीते कई दशकों से यह परंपरा बंद हो गई है। रामलीला में रावण वध के दौरान राम जो बाण चलाते हैं, उन्हें ग्रामवासी घर ले जाते हैं और पूजा करते हैं।

मंत्रों के जरिये असली में मूर्छित होते हैं लक्ष्मण

रामलीला में सबसे अद्भुत ये है कि यहां लक्ष्मण जी मंत्रों द्वारा असली में मूर्छित किये जाते हैं। समिति से जुड़े चमनलाल बताते हैं कि लक्ष्मण मूर्छा की लीला काल्पनिक नहीं बल्कि सच होती है। इसके लिए कानपुर में रहने वाले पंडित जी मेघनाद का किरदार निभाते हैं। उन्हें मंत्रों से मूर्छा दिलाने की कला आती है। रामलीला में लक्ष्मण मूर्छा लीला मंचन के दिन वो पूरा दिन व्रत रहते हैं। लीला के समय वह मंत्र उच्चारण करके लक्ष्मण को मूर्छित करते हैं। कहते हैं कि इस मूर्छा को डॉक्टर भी नहीं तोड़ सकते हैं। इसके बाद हनुमान जी मेला स्थल से करीब तीन किमी दूर वीरपुर गांव में स्थित एक बाग से संजीवनी बूटी लाते हैं। 

वह बताते हैं कि लक्ष्मण का किरदार निभाने के लिए जल्द कोई युवा ग्रामीण तैयार नहीं होता है। उनमें ऐसी भ्रांति है कि लक्ष्मण के किरदार के समय आने वाली मूर्छा से एक वर्ष आयु कम हो जाती है। इस लीला को देखने क्षेत्र ही नहीं आसपास के जिलों से भारी भीड़ उमड़ती है। यहां मंचन के लिए अलग-अलग स्थान हैं। लीला के हिसाब से हर व्यवस्था की जाती है। आयोजन समिति में अर्जुन तिवारी, विनय गुप्ता आदि का विशेष योगदान रहता है।

जानिए क्या है खजुहा का इतिहास

आदि काल में खजुहा को खजुआ गढ़ के नाम से जाना जाता था। इस स्थान का मुगल काल में काफी महत्व था। औरंगजेब के समय यह इलाहाबाद मंडल की मुख्य छावनी थी। 5 जनवरी 1659 में मुगल शासक औरगंजेब का अपने भाई शाहशुजा के साथ युद्ध हुआ था। औरंगजेब ने शाहशुजा को यहीं पर मारा था। जीत की खुशी में उसने यहां खूबसूरत बाग और 130 कमरों की सरायं बनवाई थी। इसे बादशाही बाग के नाम से जाना जाता है, जो आज बेहद जर्जर अवस्था में है।


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