गुजरता जा रहा समय, न तो बन पा रहे बड़े साहब और न ही मिल रहा बड़ा ओहदा Kanpur News
रियल जर्नलिज्म के जरिए शिक्षण संस्थानों में चल रही खींचतान के बारे में जानिए।
कानपुर, जेएनएन। शहर के शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई के साथ ही राजनीति व प्रोफेसरों में खींचतान होती रहती है। रियल जर्नलिज्म में विक्सन सिक्रोडिय़ा अपने कॉलम कैंपस से इन्हीं गतिविधियों को उजागर कर रहे हैं।
कब आएगा नंबर
अब तो हद हो गई, फल, फूल व अनाज पैदा करने का पाठ पढ़ाने वाले कुछ साहब कब से बड़े साहब बनने का इंतजार कर रहे हैं। उनके ज्ञान का परिचय लिया जा चुका है लेकिन बंद किस्मत है कि खुलने का नाम ही नहीं लेती। बड़ी मेहनत से वह यहां तक पहुंचे हैं लेकिन इसके आगे एक कदम चल नहीं पा रहे हैं। कई बार कुछ पेंचीदा मामलों की सुनवाई के लिए सभा बुलाई गई, लेकिन बड़ा साहब बनाने के मसले पर चुप्पी साध ली गई। सभा के सभी सदस्यों ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, नतीजा अभी तक नंबर नहीं आया। लंबे इंतजार के बाद हाल ही में सुनवाई हुई। कुछ का नंबर आ भी गया लेकिन जो इनके साथ अपने नंबर की प्रतीक्षा कर रहे थे उन पर कोई निर्णय नहीं लिया गया है। इस बार वह यह कहते हुए लौट गए कि पता नहीं हमारा नंबर कब आएगा।
बड़ा ओहदा चाहिए
तकनीक का पाठ पढ़ाते-पढ़ाते अनुभव इतना हो गया है कि अब तो बड़ा ओहदा चाहिए। यही सोचते सोचते उम्र निकली जा रही है लेकिन किस्मत है कि जागने का नाम ही नहीं ले रही है। ऐसे महानुभावों के दिल की बात सुनकर बड़े साहब ने कई बार उन्हें ओहदा देने के लिए मंच सजाया लेकिन ये क्या, कुछ महानुभाव ऐसे थे कि उन्हें एक ओहदा गंवारा ही नहीं था। फिर क्या था फंसा दिया पेच। अपनी मंशा जाहिर करते हुए बोले कि समय गुजरता जा रहा है, जितना अनुभव है, उस हिसाब से दो ओहदे मिलने ही चाहिए। वह जिस योग्य हैं उस आधार पर यह बात कह रहे हैं। एक ओहदा मिलने का समय अब गुजर चुका है। खैर, ऐसे महानुभावों को मनाने के साथ ओहदा देने के लिए सभा बुलाने की तैयारी की जा रही है लेकिन इसमें कितनी कामयाबी मिलेगी कि यह तो आने वाला वक्त बताएगा।
भाषणबाजी पड़ी महंगी
सोचा भी नहीं था कि चांद तक पहुंचाने की राह दिखाने वाले संस्थान में ऐसे भी दिन देखने पड़ेंगे। अपनी बात स्पष्ट तरीके से कहने के साथ ही की गई भाषणबाजी संस्थान को महंगी पड़ गई। अब संस्थान इस घटना के बाद किसी बात का सीधा जवाब नहीं दे पा रहा है। मामला इस तरह फंस गया है कि न उगलते बन रहा है और न ही निगलते। बड़े साहब के कहने पर पहरा लगाया गया और मना भी किया गया लेकिन नौनिहाल भला कहां मानने वाले थे। जोश में जो किया वह सही था या नहीं यह अभी किसी को नहीं पता लेकिन मामला इस कदर पेंचीदा हो गया है कि अब उन्हें ऐसा लग रहा है कि उनके सिर पर तलवार लटक रही है। बड़े साहब भी परेशान हैं कि किस तरह बीच का रास्ता निकाला जाए कि जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।
चिट्ठी पर चिट्ठी
रेल, बस, मकान व सड़क बनाने की तकनीक सिखाने वाली बड़ी कार्यशाला में आजकल चिट्ठी पर चिट्ठी दौड़ रही हैं। यहां बड़े साहब की नाराजगी छोटे मुलाजिम पर इस कदर है कि वह उसे काम ही नहीं करने दे रहे हैं। उनका काम दूसरे मुलाजिम कर रहे हैं और छोटा मुलाजिम परेशान हैं। सोच रहा है कि ऐसी क्या खता हुई जो इतनी बड़ी सजा दी जा रही है। अरे सच बोलना गुनाह है क्या? जो उसने बोला। अगर हां तो फिर कार्यशाला में सच बोलने का पाठ क्यों पढ़ाया जाता है? पहले दूर देश भेजा। जब वहां के अधिकारी से घर जाने का निवेदन किया तो उन्होंने यहां भेज दिया। अब मुलाजिम को घर आकर ऐसा लग रहा है मानो ये पराया हो चुका है। एक ओर बड़े साहब चिट्ठी पर चिट्ठी भेजे जा रहे हैं वहीं मुलाजिम के मन में सवाल है कि कब पिघलेगा साहब का दिल।