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विद्या राजपूत बोलीं- हमारी सामाजिक स्वीकार्यता नहीं है, लोग हमे इंसान तक नहीं समझते

छत्तीसगढ़ सरकार ट्रांसजेंडर वेलफेयर बोर्ड की सदस्य और सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता ने फेसबुक लाइव शो में अपनी कहानी बयां की।

By Abhishek AgnihotriEdited By: Published: Wed, 17 Jun 2020 10:26 PM (IST)Updated: Wed, 17 Jun 2020 10:26 PM (IST)
विद्या राजपूत बोलीं- हमारी सामाजिक स्वीकार्यता नहीं है, लोग हमे इंसान तक नहीं समझते
विद्या राजपूत बोलीं- हमारी सामाजिक स्वीकार्यता नहीं है, लोग हमे इंसान तक नहीं समझते

कानपुर, जेएनएन। विकास प्रकाशन कानपुर और वाङ्गमय पत्रिका के संयुक्त तत्वावधान में विगत एक माह से जारी ट्रांसजेंडर व्याख्यानमाला फेसबुक लाइव शो के चौथे चरण "मेरी कहानी मेरी जबानी" के अंतर्गत 'ट्रांसजेंडर: जीवन और चुनौतियां' विषय पर विद्या राजपूत ने अनुभवों को साझा किया। वह छत्तीसगढ़ सरकार ट्रांसजेंडर वेलफेयर बोर्ड की सदस्य और सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। उनकी मितवा समिति ट्रांसजेंडर से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर छत्तीसगढ़ राज्य में सक्रिय है।

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विद्या राजपूत ने कहा कि मेरा बचपन बहुत कठिन रहा, शुरू में मुझे लोग चिढ़ाते थे, मैं लड़कियों के साथ खेलती थी। उस समय मुझमें समझ नहीं थी, कक्षा चार-पांच तक ठीक चला लेकिन कक्षा छह-सात में पहुंचते ही लोगों की जुबान बदली और मैं तानों से डरने लगी। रोज स्कूल न जाने के बहाने बनाने लग गई लेकिन मां का दबाव मुझ पर बहुत रहता था। इसी वजह से मेरी शिक्षा जारी रह पाई। कभी-कभी मुझे घुटन महसूस होने लगती थी, मेरे मन में सवाल उठते कि मैं हूँ क्या? मेरा शरीर लड़कों का है और भावनाएं लड़कियों की ऐसा क्यों? मेरी मां और भाइयों को लगता था कि यदि मैं लड़कियों के साथ न रहूं, उनके साथ न खेलूं तो शायद सुधर जाऊं। मेरे भईया तो कई बार मुझे लड़कियों के साथ देख लेते तो मारते भी थे। मैने खुद को अपने में समेट लिया था और उस दौरान मेरा आत्मविश्वास टूट सा गया था।

उन्होंने कहा, सबसे बड़ी त्रासदी है कि ट्रांसजेंडर समुदाय का अस्तित्व भावनाओं पर टिका है और आजतक उन्हें कोई समझ ही नहीं पाया है। यही कारण है न जाने कितने बचपन में ही खुद को समाप्त कर लेते हैं या फिर घुटन भरी स्याह जिंदगी का हिस्सा बनने को मजबूर होते हैं। 7 से 22 वर्ष तक कि उम्र का जो समय है, वो किसी के लिए सबसे अहम समय होता है, बढ़ती उम्र के साथ आ रहे परिवर्तन और महसूस हो रही भावनाओं के साथ बढ़ रहे शोषण और पहचान के संकट से जो उबर गया वह स्वयं को स्थापित कर लेता है। इस दौर से गुजरना आसान नहीं था और उन्होंने दो बार आत्महत्या करने का प्रयास किया लेकिन बच गईं। मैं पूरी तरह से टूट चुकी थी लेकिन मां के लिए कुछ करना चाहती थी। इसी धुन में उन्हें बस्तर के गांव से रायपुर पहुंचा दिया।

विद्या बताती हैं कि पहले मुझे लगता था कि कहीं मैं गलत तो नहीं हूं लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब मैं जो थी उसी प्रवाह में बहना चाहती थी। वह कहती हैं कि मैने देखा कि हमारी सामाजिक स्वीकार्यता नहीं है, पारिवारिक स्वीकार्यता नहीं है, ज़िंदगी जीने की आजादी नहीं है, यहां तक कि लोग हमे इंसान तक नहीं समझ रहे। तब मुझे लगा कि अब खुलकर बोलना चाहिए। मैंने लड़के का रोल करते-करते 30 वर्ष बिता दिए थे लेकिन बाद में धीरे-धीरे खुलती गई। मैंने खुद को बदला तब पहली बार और एहसास हुआ कि अब मैं और मेरी भावना एक है। इसके बाद खुश रहने लगी और आत्मविश्वास के साथ समुदाय के लिए काम कर रही हूं।


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