बच्चों को 'अमृत' देकर मिटा रहे कुपोषण का जहर
विकास के रास्ते पर देश भले ही कितनी ही तेजी से कदम बढ़ा रहा हो, लेकिन बच्चों के कुपोषण की फिक्र साथ-साथ चल रही है। खास तौर पर गांवों में बिलख रहे अतिकुपोषित और कुपोषित बच्चे अपने ही अभिभावकों की नासमझी के शिकार हैं।
जागरण संवाददाता, कानपुर : विकास के रास्ते पर देश भले ही कितनी ही तेजी से कदम बढ़ा रहा हो, लेकिन बच्चों के कुपोषण की फिक्र साथ-साथ चल रही है। खास तौर पर गांवों में बिलख रहे अतिकुपोषित और कुपोषित बच्चे अपने ही अभिभावकों की नासमझी के शिकार हैं। जब इस स्थिति को बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. यशवंत राव ने करीब से देखा तो जुट गए बच्चों को स्वस्थ बनाने के अभियान में। गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक चिकित्सा महाविद्यालय (जीएसवीएम) के बाल रोग विभागाध्यक्ष डॉ. राव अभियान चलाकर अब तक 700 अतिकुपोषित बच्चों को स्वस्थ कर चुके हैं। अपने हाथों से 'अमृत' नाम का पौष्टिक आहार बनाकर गांव-गांव बांटते रहे हैं।
मूल रूप से देवरिया जिले के बालकुआं गांव निवासी डॉ. यशवंत राव ने जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज से 1999 में एमबीबीएस और फिर 2004 में केजीएमयू लखनऊ से एमडी पीडियाट्रिक्स की पढ़ाई पूरी की। 2006 से वह मेडिकल कॉलेज के बाल रोग विभाग में सेवाएं दे रहे हैं। वह बताते हैं कि करीब चार साल पहले एक डाटा जानकारी में आया कि कानपुर और उसके आसपास 12000 अतिकुपोषित बच्चे हैं। प्रशासन द्वारा बुलाई गई बैठक में इस बात पर चिंता जताई गई कि जब पौष्टिक आहार (पंजीरी) वितरण, वजन दिवस की सरकारी योजनाएं चल रही है तो कुपोषण दूर क्यों नहीं हो रहा है। उसी दौरान साई दरबार से संपर्क में आई समाजसेवी प्रियंका सिंह से इस विषय पर बात हुई तो तय किया कि बच्चों को कुपोषण दूर करने के लिए कुछ किया जाए। डॉ. राव बताते हैं कि इसके बाद बिधनू ब्लॉक के कसिगवां गांव में बीस अतिकुपोषित बच्चे गोद लिए। उनके लिए अपने हाथ से पौष्टिक आहार बनाया, जिसे तत्कालीन जिलाधिकारी रोशन जैकब ने 'अमृत' नाम दिया। वह अमृत पूरी निगरानी के साथ बच्चों को खिलाया तो वह पूरी तरह स्वस्थ हो गए। इसके बाद चार गांवों में और सर्वे किया तो पता चला कि सरकार अतिकुपोषित बच्चों पर तो ध्यान देती है, लेकिन कुपोषित पर नहीं। इसकी वजह से कुपोषित बच्चे भी कुछ समय में अतिकुपोषित हो जाते हैं। उन गांवों के बच्चों को भी अमृत दिया तो उनमें से 90 फीसद बच्चे पूर्ण स्वस्थ हो गए। उसके बाद तो इसे अभियान का रूप दे दिया। समय-समय पर शिविर लगाकर अमृत का वितरण करते हैं। अभिभावकों को यह आहार बनाना सिखाते हैं और जागरूक करते हैं। इस तरह वह अब तक 700 अतिकुपोषित बच्चों को पूर्ण रूप से स्वस्थ कर चुके हैं।
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ऐसे बनता अमृत
250 ग्राम मूंगफली, 300 ग्राम चना, 250 ग्राम दूध पाउडर को मिलाकर पीस लें। इसमें 200 ग्राम देसी गुड़, 200 ग्राम चीनी मिलाकर पंजीरी बना लें। इसे 150 मिलीग्राम नारियल तेल में हल्का सा भून लें।
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'सामान्य बच्चों की तुलना में अतिकुपोषित बच्चों की मृत्यु दर दस गुना अधिक है। वह अन्य बीमारियों से लड़ नहीं पाते। चूंकि मैंने कानपुर से ही पढ़ाई की है, इसलिए इस शहर से लगाव है। डॉक्टर बनने का मतलब धन्ना सेठ नहीं होता। बहुत भाग्यशाली होते हैं वह लोग, जिन्हें भगवान चिकित्सक बनाता है। इसे समझते हुए सेवा करनी ही चाहिए। हालांकि कोई डॉक्टर नहीं चाहता कि उसके मरीज को कैसा भी नुकसान हो।'
डॉ. यशवंत राव
बाल रोग विभागाध्यक्ष, जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज
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निजी अस्पतालों को मात दे रहा एनआइसीयू
लाला लाजपत राय अस्पताल (हैलट) के बाल रोग विभाग का कायाकल्प करने में भी डॉ. राव का बड़ा योगदान है। इन्होंने ही अस्पताल में नवजात शिशु सघन कक्ष (एनआइसीयू) की स्थापना कराई। अब यहां वेंटिलेटर से लेकर सभी अत्याधुनिक सुविधाएं हैं। इसके अलावा खुद ¨हदुस्तान एयरोनॉटिकल लिमिटेड (एचएएल) के अधिकारियों से संपर्क कर सीएसआर फंड के एक करोड़ रुपये से विभाग और एनआइसीयू की सूरत बदलवा दी। अपने खर्च से चीन से एचडी कैमरा मंगवाकर एनआइसीयू में लगवाया। अब वह दुनिया के किसी भी कोने में रहें, वहीं से अपने मोबाइल के जरिये एनआइसीयू पर बतौर इंचार्ज नजर रखते हैं।
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यह थीं चुनौतियां
डॉ. यशवंत राव बताते हैं कि ग्रामीणों को समझाना बड़ी चुनौती रही। गांवों में परिजन कुपोषण को बीमारी ही नहीं मानते, जबकि यह बहुत खतरनाक है। बच्चे मरणासन्न हालत तक पहुंच जाते हैं। इसके अलावा चिकित्सक, अन्य स्टाफ सहित संसाधनों की कमी भी हमें झेलनी पड़ती हैं। सरकार यदि जरूरत के मुताबिक वह संसाधन मुहैया कराए, जिसकी वाकई जरूरत है तो चिकित्सा में काफी मदद मिले।
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यह है डॉ. राव का सपना
वह कहते हैं कि बहुत से बच्चों को पैदाइशी जटिल बीमारियां होती हैं। उनके इलाज के लिए परिजनों को दिल्ली, मुंबई, चेन्नई जैसे शहरों में भटकना पड़ता है। यदि संसाधन हों, सरकार मदद करे तो वह कानपुर में ऐसा पीडियाट्रिक इंस्टीट्यूट स्थापित करना चाहते हैं, जहां उन बच्चों का इलाज संभव हो।