बिठूर महोत्सव में नहीं बुलाए गए तात्या टोपे के वंशज, मंच से मंत्री पढ़ते रहे कसीदे
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में तात्याटोपे एक प्रमुख सेनानायक थे।
कानपुर, जेएनएन। बिठूर गंगा उत्सव के मंच पर मुख्य अतिथि 1857 की जिस क्रांति का जिक्र बड़े शान से कर रहे थे और जिसके बूते वह इस धरा को वीर भूमि बता रहे थे। उसी क्रांतिवीर तात्या टोपे के वंशजों को इस कार्यक्रम में अफसरों ने बुलाना तक मुनासिब नहीं समझा। उनका परिवार आमंत्रण न मिलने के कारण इस आयोजन से दूरी बनाए रहा।
बिठूर में ही रहते हैं वंशज
बिठूर की पहचान गंगा और अध्यात्मिकता की वजह है, मगर 1857 के गदर में इस सरजमीं के जिक्र के बिना बिठूर का इतिहास नहीं लिखा जा सकता। तात्याटोपे इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख सेनानायक थे। उन्होंने झांसी की रानी, नाना साहब पेशवा, राव साहब और बहादुरशाह जफर के विदा होने के बावजूद एक वर्ष तक विद्रोहियों की कमान संभाली थी। अपने खून और बलिदान से देशप्रेम की अमर गाथा लिखने वाले इस योद्धा के वंशज बिठूर में ही रहते हैं। उनके प्रपौत्र विनायक राव टोपे अपने परिवार के साथ लवकुश नगर में रहते हैं।
महोत्सव की किसी ने नहीं सूचना
विनायक राव के बेटे आशुतोष ने बताया कि बिठूर महोत्सव के लिए उन्हें किसी ने सूचना नहीं दी और न ही कोई आमंत्रण मिला। इसलिए वे अपने मंदिर में पूजा आदि के काम में व्यस्त हैं। बीते साल भी उन्हें नहीं बुलाया गया था फिर भी वे गए थे। महोत्सव में इस परिवार को आमंत्रित किया जाना प्रशासन की साफ-साफ लापरवाही माना जा रहा है।
जिलाधिकारी ने रखी अपनी सफाई
जिलाधिकारी डॉ. ब्रह्मादेव राम तिवारी का कहना है कि उन्हें यह जानकारी नहीं है कि आयोजकों ने तात्या टोपे के वंशजों को आमंत्रित किया है या नहीं। कौन हैं तात्या टोपे तात्या का जन्म नासिक के निकट पटौदा जिले के येवला नामक गांव में में हुआ था। उनके पिता पांडुरंग राव भट्ट़ (मावलेकर), पेशवा बाजीराव द्वितीय के करीबी कर्मचारियों में से थे। इसलिए वे 1818 में उनके साथ बिठूर चले आए। 1814 में जन्मे तात्याटोपे भाई-बहनों में तात्या सबसे बड़े थे। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में नाना साहब के सैनिक सलाहकार तात्या टोपे ने कानपुर की सुरक्षा में अपना जी-जान लगा दी। पराजय के बाद उन्होंने बिठूर को अपना केंद्र बनाया। कानपुर, चरखारी, झांसी और कोच की लड़ाइयों की कमान तात्या टोपे के हाथ में थी। आठ अप्रैल, 1859 को उन्हें अंग्रेजों ने पकड़ लिया। 18 अप्रैल को शाम पांच बजे तात्या को फांसी दी गई थी।