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जरा इनसे लें प्रेरणा, विपरीत परिस्थितियों के बाद भी अंधेरी जिंदगी में ले आए उजाला

तीन माह में ही नेत्र ज्योति चले जाने के बाद भी रामकिशन ने नहीं मानी हार, पीएचडी करने के साथ ही कर रहे जनसेवा, राष्ट्रपति भी हैं प्रशंसक।

By AbhishekEdited By: Published: Sun, 10 Feb 2019 04:55 PM (IST)Updated: Sun, 10 Feb 2019 04:55 PM (IST)
जरा इनसे लें प्रेरणा, विपरीत परिस्थितियों के बाद भी अंधेरी जिंदगी में ले आए उजाला
जरा इनसे लें प्रेरणा, विपरीत परिस्थितियों के बाद भी अंधेरी जिंदगी में ले आए उजाला
घाटमपुर (कानपुर), [महेश शर्मा]। जन्म के महज तीन माह बाद ही बीमारी ने नेत्र ज्योति छीन ली। माता-पिता ने इसे नियति का फैसला मानकर कबूल किया और उनका पालन-पोषण किया। नौ वर्ष के हुए तो पिता का साया सिर से उठ गया। ये बहुत कठिन वक्त था क्योंकि दुनिया पहले ही अंधेरी थी, उस पर वृद्ध मां व दो बहनों की जिम्मेदारी मासूम कंधों पर आन पड़ी थी लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। एक झोपड़ी में रहकर दुकानों में कोयला ढोने से लेकर ट्रेनों में मूंगफली, कंपट-टॉफी बेच जीवन की गाड़ी खींची।
परिवार के भरण-पोषण के साथ ही हिंदी व राजनीति विज्ञान से एमए व वर्ष 1996 में श्री शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर ने उन्हें विद्या वाचस्पति (पीएचडी) की उपाधि हासिल की। ये संघर्ष भरी दास्तां है 64 वर्षीय नेत्रहीन डॉ.रामकिशन गुप्ता की। दिव्यांग और जरूरतमंदों की सेवा ही उनकी जिंदगी का मकसद है। उनके लिए हिम्मत-ए-मर्दा, मदद-ए-खुदा..सूत्रवाक्य है। समर्पण के चलते उनके प्रशंसकों की फेहरिस्त में देश-प्रदेश के ब्यूरोक्रेट और राजनेता ही नही, राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी हैं।
4 जून 1955 को जन्मे डॉ.रामकिशन की  जिंदगी  ने कदम-कदम पर परीक्षा ली, झुकने को मजबूर किया लेकिन स्वाभिमान ने किसी के आगे हाथ पसारने के बजाय हाड़तोड़ मेहनत को प्रेरित किया। पैतृक गांव डोहरू (सजेती) से घाटमपुर आकर बसे डॉ.रामकिशन पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति व उच्चतम शिक्षा हासिल कर बेहतर जीवन जी सकते थे लेकिन दिव्यांगजनों, निराश्रितों व गरीबों को आत्मनिर्भर बनाने की ललक ने उन्हें रुकने नही दिया। दिव्यांगजनों को ट्राई साइकिल, बैसाखी, व्हीलचेयर जैसे उपकरण उपलब्ध कराना, रोजगारपरक प्रशिक्षण दिलाना, निराश्रित महिलाओं को प्रशिक्षण व सिलाई मशीन दिला आत्मनिर्भर बनाना ही उनकी जिंदगी का मकसद है। वह बीते चार दशक से रामकिशन मानव विकास समिति, अखिल भारतीय नेत्रहीन संगठन, स्नेह आश्रम समिति के माध्यम से जनसेवा में लगे हैं।
खुद के लिए मदद लेने से इनकार
डॉ.गुप्ता की समाजसेवा को लेकर ख्याति बढ़ी, तो विभिन्न समाजसेवी संस्थाएं मदद को आगे आईं। 90 के दशक में भारतीय स्टेट बैंक ने उनके नेत्रों के इलाज के लिए 10 हजार रुपये आॢथक मदद की पेशकश की। जिसे उन्होंने विनम्रता से ठुकरा दिया। वर्ष 1989 एवं 1998 में राज्य सकार ने पुरस्कार से नवाजा लेकिन उन्होंने पुरस्कार के साथ मिलने वाली धनराशि दिव्यांगों के कल्याण के लिए सरकार को ही लौटा दी।
तारीफ करते नहीं थकते राष्ट्रपति
महामहिम राष्ट्रपति रामनाथ  कोविंद अपने साथियों के साथ एक संस्मरण सुनाकर डॉ. गुप्ता की खुद्दारी की तारीफ करते नही थकते। वह बताते हैं कि उनके राज्यसभा सदस्य रहने के दौरान रामकिशन एक मित्र का पत्र लेकर दिल्ली आवास में मिलने आए थे। वह रामकिशन को नेत्रहीन देख घर के बाहर तक भेजने आए और कुछ मदद की पेशकश की जिसे उन्होंने विनम्रता से ठुकरा दिया।
जनहित में अनशन-धरने पर बैठे
वर्ष 2007 में बेतवा एक्सप्रेस के ठहराव के लिए डॉ.रामकिशन कई दिनों तक आमरण अनशन पर बैठे रहे। नतीजा घाटमपुर स्टेशन पर बेतवा का ठहराव हुआ। सीएनजी बसों का नौबस्ता से घाटमपुर के बीच संचालन बंद होने पर धरना पर बैठ गए। परिणामस्वरूप प्रबंधन को झुकना पड़ा और बसें पूर्ववत चलने लगी। अन्ना आंदोलन से लेकर सीएनजी बसों के किराये वृद्धि तक के आंदोलनों का राम किशन ने सफल नेतृत्व किया।
हासिल कीं ये उपलब्धियां
- सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता ने दिव्यांगजन सशक्तीकरण के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया। पुरस्कार 3 दिसंबर 2017 को महामहिम राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद  ने दिया था।
- 1989 व 1998 में राज्यस्तरीय एवं 2009 में जिलास्तरीय पुरस्कारों से नवाजा गया।
- उत्तर प्रदेश ङ्क्षहदी साहित्य अकादमी के अलावा मानस संगम की ओर से कानपुर गौरव समेत कई सम्मान मिले।  

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