स्वामी विवेकानंद ने भारत उठो और संसार को जीत लो का दिया था संदेश, पुण्यतिथि पर पढ़िए उनके भाषण का अंश
भारत की अवनति के कारणों को इंगित करते हुए उसके उत्थान की परिकल्पना प्रस्तुत की स्वामी विवेकानंद ने। उनकी पुण्यतिथि (4 जुलाई) पर पढ़िए उनकी पुस्तक ‘जागृति का संदेश’ से धार्मिक और राष्ट्रीय भावनाओं को उत्तेजित करने वाले ऐसे ही एक भाषण का अंश...
कानपुर। सार में बहुत सी बड़ी-बड़ी दिग्विजयी जातियां हो गई हैं। हम लोग भी सदा दिग्विजयी रहे हैं। हम लोगों के दिग्विजय के उपाख्यान में भारत के उस महान सम्राट अशोक के धर्म और आध्यात्मिकता के दिग्विजय का वर्णन किया गया है। फिर भारत को संसार पर विजय प्राप्त करना होगा। यही मेरे जीवन का स्वप्न है, जो मेरी बात को सुन रहे हैं, उन सबके मन में यह कल्पना जागृत हो और जब तक तुम इसे कार्य रूप में परिणत नहीं कर सकते, तब तक दम नहीं लेना चाहिए। लोग तुमसे रोज कहेंगे कि पहले अपना घर संभालो, फिर विदेश में प्रचार के लिए जाना, लेकिन मैं तुम लोगों से बिल्कुल स्पष्ट भाषा में कहता हूं कि जब तुम लोग दूसरों के लिए कार्य करोगे तभी सर्वोत्तम कार्य कर सकोगे।
आज की सभा से यह प्रमाणित होता है कि तुम्हारे विचारों द्वारा दूसरे देशों में ज्ञानलोक फैलाने की चेष्टा करने से वह किस प्रकार आप ही के लिए सहायक होगा। अगर मैं भारत में ही अपने कार्यक्षेत्र को सीमाबद्ध रखता तो इंग्लैंड और अमेरिका जाने से जो कुछ अच्छा फल हुआ है, उसका एक चौथाई फल भी न होता। यही हम लोगों के सामने एक महान आदर्श है और प्रत्येक को इसके लिए तैयार रहना पड़ेगा। भारत के द्वारा समस्त संसार को विजय करना होगा, इससे कम कुछ भी नहीं चलेगा, इसके लिए प्राणों की बाजी लगानी पड़ेगी।
विदेशियों ने आकर अपनी सेना भारतभर में फैला दी है, लेकिन कुछ परवाह नहीं। भारत उठो, अपनी आध्यात्मिक शक्ति से संसार को जीत लो। इसी देश में यह बात पहले पहल कही गई थी कि घृणा द्वारा घृणा को नहीं जीता जा सकता, प्रेम के द्वारा विद्वेष को जीता जा सकता है, हम लोगों को यही करना पड़ेगा। जड़वाद और उससे उत्पन्न दुखों को जड़वाद के द्वारा जीता जा सकता है।
जब एक सेना दूसरी सेना को बाहुबल से जीतने का प्रयत्न करती है तो वह मनुष्य जाति को पशु जाति में परिणत कर देती है और क्रमश: पशुओं की संख्या बढ़ने लगती है। आध्यात्मिकता अवश्य ही पाश्चात्य देशों को जीतेगी। धीरे-धीरे वे लोग समझ रहे हैं कि यदि वे एक जाति के रूप में होना चाहते हैं तो उन्हें आध्यात्मिक भाव संपन्न होना पड़ेगा। वे इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं और उत्सुक हैं। वह कहां से आएगा?
भारत के महर्षियों के भावों को लेकर प्रत्येक देश में जाने वाले लोग कहां पर मिलेंगे? संसार की गली-गली में यह कल्याणकारी बात गूंज उठे, इसके लिए सर्वस्व त्याग करने को तैयार रहने वाले लोग कहां पर मिलेंगे? सत्य के प्रचार में सहायता करने वाले वीरों की आवश्यकता है।
विदेश में जाकर वेदांत के इस महान तत्व का प्रचार करने वाले वीर हृदय वाले कार्यकर्ताओं की आवश्यकता है। संसार के लिए इसकी आवश्यकता हुई है, अगर ऐसा न होगा तो संसार का नाश हो जाएगा। हम लोगों के लिए यही कार्य करने का समय है, जिससे भारत का आध्यात्मिक भाव पाश्चात्य देशों में खूब फैल जाए। इसलिए हे नौजवानों! मैं तुम लोगों से इसे खूब अच्छी तरह से याद रखने के लिए कह रहा हूं। एक दिन जो जीवन तेजस्वी था, उसे एक बार फिर तेजपूर्ण करके भारतीय विचारों द्वारा संसार को जीतना होगा। हम लोगों को सावधान होना पड़ेगा, क्योंकि इस देश में हम लोगों के सिर पर न जाने कितनी विपत्तियां मंडराया करती हैं, उनमें से एक ओर तो घोर जड़वाद है, दूसरी ओर उसके प्रतिक्रियारूप कुसंस्कार हैं, दोनों से ही बचकर चलना पड़ेगा।
मैं आप लोगों को घोर नास्तिक देखना पसंद करूंगा, लेकिन कुसंस्कार से भरे मूर्ख के रूप में देखना नहीं चाहूंगा, क्योंकि नागरिकों में कुछ न कुछ आशा है। वे मुर्दे नहीं हैं, लेकिन अगर मस्तिष्क में कुसंस्कार घुस जाते हैं तो वह बिल्कुल बेकार हो जाता है। मैं साहसी, निर्भीक लोगों को चाहता हूं। मस्तिष्क को बेकार और कमजोर बनाने वाले भावों की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारे और तुम्हारी संपूर्ण जाति के लिए घोर नास्तिक होना अच्छा है, क्योंकि नास्तिक होने से कम से कम तुममें तेज तो रहेगा, किंतु इस तरह कुसंस्कारपूर्ण होना अवनति और मृत्यु का कारण है।
हम लोग सदा से ही किसी व्यक्ति विशेष के अनुयायी नहीं हैं, हम लोग धर्म के तत्वों के उपासक हैं। व्यक्ति उन तत्वों की साकार मूर्ति है, उदाहरणस्वरूप है। यदि ये तत्व समूह अविकृत बने रहेंगे तो सैकड़ों महापुरुष, सैकड़ों बुद्ध देव का अभ्युदय होगा। हमारे धर्म के ये तत्व अविकृत रहें और उन पर काल की मलिनता और धूल न चढ़ने पाए, इसके लिए हमें जीवनभर प्रयत्न करने पड़ेंगे। (यह भाषण ट्रिल्पीकेन की साहित्य समिति में दिया गया था। इसी समिति के उद्योग से स्वामी जी शिकागो की धर्म महासभा में हिंदू धर्म के प्रतिनिधि बनकर गए थे)