Move to Jagran APP

सड़कों पर ब्लेड-मूंगफली बेची और आज 4 शोरूम के मालिक, आठ वर्ष की आयु में पाकिस्तान से कानपुर आये यशपाल की कहानी

पाकिस्तान के लाहौर के बागवानपुर से 1947 में बंटवारे के समय में आठ वर्ष की आयु में यशपाल अरोड़ा ने परिवार के साथ सीमा पार की थी और सदमे में पिता की मौत हो गई थी। कानपुर में संघर्ष का जीवन बिताने के बाद आज शोरूम के मालिक हैं।

By Abhishek AgnihotriEdited By: Published: Wed, 10 Aug 2022 11:34 AM (IST)Updated: Wed, 10 Aug 2022 11:34 AM (IST)
सड़कों पर ब्लेड-मूंगफली बेची और आज 4 शोरूम के मालिक, आठ वर्ष की आयु में पाकिस्तान से कानपुर आये यशपाल की कहानी
बंटवाने के समय कानपुर आ गए थे यशपाल अरोड़ा।

कानपुर, जागरण संवाददाता। आज हम आजादी के अमृत महोत्सव की खुशियां मना रहे हैं। देश को आजाद हुए 75 वर्ष पूरे हो रहे हैं। हर ओर उल्लास है, लेकिन आर्यनगर निवासी 83 वर्षीय यशपाल अरोड़ा की आंखों के सामने आज भी वह दृश्य आ जाता है जब देश विभाजन के बाद उन्होंने अपने पूरे परिवार के साथ सीमा पार की थी।

loksabha election banner

मात्र आठ वर्ष की आयु में अपने पिता मूलचंद अरोड़ा, मां द्रौपदी अरोड़ा, भाई मंगतराम अरोड़ा और तीन बहनों के साथ वह किसी तरह बचते-बचाते सीमा पार आए थे। हरिद्वार तक पहुंचे तो देश के विभाजन के सदमे में पिता का निधन हो गया। किसी तरह बाकी लोग शहर पहुंचे। इसके बाद के 75 वर्ष उनकी संघर्ष से सफलता की कहानी है, जो उन्होंने परिवार के साथ मिलकर लिखी है।

परिवार शहर आया तो उसके हाथ खाली थे। पालन पोषण के लिए परिवार को मूंगफली तक बेचनी पड़ी, उस परिवार के पास आज शहर के हृदय स्थल नवीन मार्केट में चार शोरूम हैं। 80 फीट रोड पर सम्राट गेस्ट हाउस और इसके अलावा कई कंपनियां हैं।

यशपाल अरोड़ा के पिता का लाहौर में कपड़े का कारोबार था। अपनी संपत्ति भी थी। यशपाल अरोड़ा बताते हैं कि वहां बंटवारे की घोषणा होते ही मारकाट शुरू हो गई थी। पुलिस लोगों पर कहर ढा रही थी। सोते समय लोगों के घरों में आग लगाई जा रही थी। किसी तरह बचकर उन्होंने एक गुरुद्वारे में शरण ली। इसके बाद छिपते हुए लाहौर रेलवे स्टेशन पहुंचे।

कानपुर आते-आते पिता को खो चुके थे। इसके बाद शहर के गोला घाट के पास परिवार के साथ शरण ली। परिवार के पालन पोषण के लिए दोनों भाई कोई न कोई काम करते रहते थे। यशपाल अरोड़ा ने ट्रेनों व बसों में ब्लेड बेचे। घंटाघर व बड़ा चौराहे पर मूंगफली बेची। इसके बाद फूलबाग के पास एक दुकान के बाहर जनरल मर्चेंट के सामान लगाकर बेचने लगे।

केंद्र की तरफ से पांच सौ रुपये शरणार्थी के रूप में परिवार को मिले। बड़ा चौराहा से उर्सला अस्पताल के करीब तक सड़क के दोनों तरफ म्युनिसिपल कारपोरेशन ने स्टाल बनाकर कर सामान बेचने के लिए दिए तो बेंत व लोहे की कुर्सियां, चटाई बेचनी शुरू कीं।

1960 में नवीन मार्केट में जमीन पर टीन शेड लगाकर दुकान लगाने के लिए जगह दी गई तो वहां जनरल मर्चेंट का काम शुरू किया। इसके बाद धीरे-धीरे जिंदगी पटरी पर आने लगी। खाली हाथ आए यशपाल अरोड़ा नवीन मार्केट एसोसिएशन के 20 वर्ष उपाध्यक्ष रहे।

वहीं उनके भाई पहले महामंत्री और फिर अध्यक्ष हुए। परिवार के पालन पोषण की जिम्मेदारी में पड़ने से वह पढ़ाई नहीं कर पाए, लेकिन उन्होंने अपने भाई के साथ सफलता की इबारत लिखी। नवीन मार्केट में उनकी नावेल्टी कार्नर, अरोड़ा सेफ वर्क्स, बजाज शू कंपनी, लिपि इंटरनेशनल शोरूम हैं।

इस परिवार के साथ सबसे बड़ी बात यह है कि बंटवारे के बाद एक साथ कानपुर आने के बाद 75 वर्ष गुजरने के बाद भी उनका परिवार एकजुट है और साथ रहता है। यशपाल अरोड़ा के भाई का निधन जरूर हो गया, लेकिन घर या संपत्ति का कोई बंटवारा नहीं हुआ। मात्र आठ वर्ष की आयु में शहर आए यशपाल अब परबाबा बन चुके हैं।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.