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कोलकाता के बाद कानपुर में है दूसरा कालीबाड़ी मंदिर, यहां ताला लगाने से खुलता किस्मत का ताला

पूजन के समय देवी को बकरे की बलि के साथ ही शराब का भी भोग लगाया जाता है।

By AbhishekEdited By: Published: Sun, 02 Feb 2020 05:07 PM (IST)Updated: Mon, 03 Feb 2020 09:45 AM (IST)
कोलकाता के बाद कानपुर में है दूसरा कालीबाड़ी मंदिर, यहां ताला लगाने से खुलता किस्मत का ताला
कोलकाता के बाद कानपुर में है दूसरा कालीबाड़ी मंदिर, यहां ताला लगाने से खुलता किस्मत का ताला

कानपुर, [जागरण स्पेशल]। जिला स्थापना के इतिहास की जब-जब बात होगी तब-तब बंगाली मोहाल का नाम सबसे पहले लिया जाएगा। यहां पर कोलकाता के बाद दूसरा सबसे प्रसिद्ध काली बाड़ी मंदिर है। बंगाली समाज में इस मंदिर को लेकर आस्था की जड़ें बेहद गहरी हैं और प्रतिवर्ष पश्चिम बंगाल से सैकड़ों भक्त दर्शन करने के लिए आते हैं। मंदिर में स्थापित मां काली की प्रतिमा संहारक मुद्रा में है। इस शिखर युक्त मंदिर में भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है।

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तीन सौ साल पहले संत ने स्थापित की थी प्रतिमा

मेस्टन रोड के पीछे माता कालीबाड़ी का दरबार है। मंदिर को पांच सौ साल से भी अधिक प्राचीन माना जाता है। कहते हैं कि करीब पांच सौ साल पहले यहां घना जंगल था। उस वक्त गंगा के किनारे साधु स्नान व तपस्या के लिए यहां आते थे। आज से तीन सौ साल पहले संत मणिभूषण को माता ने पहली बार दर्शन दिए थे। उन्होंने ही माता की चार भुजाओं में खड्ग, मुंड, वरद मुद्रा तथा चौथे हाथ में लक्ष्मी देते हुए प्रतिमा स्थापित की थी।

माता की प्रतिमा के नीचे भोलेनाथ हैं। कालीबाड़ी में देवी को बकरे की बलि के साथ ही शराब का भी भोग लगाया जाता है। मान्यता है कि प्रसाद चढ़ाकर ताला लगाने वालों की मनोकामना माता जरूर पूरी करती हैं। नवरात्र में यहां प्रतिदिन हजारों भक्त मां के दर्शन करने आते हैं।

इतिहास के आईने में बंगाली मोहाल

बंगाली मोहाल का इतिहास कानपुर जिले से भी पुराना है। सन् 1783 में ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर में बंगाल से एक बंगाली परिवार कानपुर आया। परिवार के मुखिया थे कृष्णचंद्र मजूमदार। सात वर्ष के भीतर ही इन्होंने 1790 में अपना निजी मकान वहीं बना लिया, जिसे आज बंगाली मोहाल के नाम से जाना जाता है।

प्रसिद्ध इतिहासकार बाबू निमाईचरण मजूमदार कृष्णचंद्र के ही पौत्र थे। काली मंदिर के बेहद करीब बसे इस परिवार के बसने के साथ ही यहां लोग बसते चले गए। बंगाली मोहाल की बसावट 1790 से शुरू हो गई, जबकि ईस्ट इंडिया कंपनी ने कानपुर को जिला 24 मार्च 1803 में घोषित किया था।

प्रसिद्ध इतिहासकार बाबू निमाईचरण मजूमदार

बंगाली मोहाल के पहले बंगाली बाशिंदे के पौत्र निमाई बाबू का जन्म नौ अगस्त 1812 को बंगाली मोहाल मे हुआ था। उनके घर और क्राइस्टचर्च के बीच का स्थान उस समय बिल्कुल खुला हुआ था। क्राइस्टचर्च के उत्तर की ओर गंगा किनारे तक कोई इमारत न थी। उनका घर काफी बड़ा था। निमाईबाबू स्थानीय अधिकारियों के फारसी अनुवादक थे, लेकिन उनका घर 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक किले के रूप में तब्दील हो गया था। पूरे मोहल्ले के स्त्री-पुरुष इसी मकान में जमा हो गए थे।

स्त्री की ललकार सुन कर सिपाही रह गए भौचक्के

नाना साहब ने इसका नाम बंगाली किला रख दिया था। जिस समय विद्रोही सिपाही इस घर को लूटने आए तो एक बंगाली महिला उनके सामने आकर खड़ी हो गई और क्रोधित होकर कहने लगी कि तुम सरीखे वीर सिपाहियों का धर्म हम असहायों की रक्षा करना है न कि हमें लूटना। उस स्त्री की ललकार सुन कर सिपाही भौचक्के रह गए। उन्होंने कहा कि वे यहां लूटने नहीं आए हैं। इसके बाद बंगाली महिलाओं ने हर्षध्वनि करते हुए अपने सारे जेवर खुशी-खुशी उन्हें दे दिए।

2 घंटे में लिखा कानपुर के गदर का इतिहास

सैनिक विद्रोह के शांत होने के बाद अंग्रेज जनरल हेवेलाक ने निमाई बाबू से 12 घंटे में कानपुर के गदर का इतिहास लिखकर देने को कहा, क्योंकि उसे दूसरे ही दिन ब्रिटेन भेजा जाना था। कानपुर के तत्कालीन कलक्टर मेगसाटन निमाई बाबू के काम से बड़े प्रसन्न थे। जब वे पंजाब के लेफ्टीनेंट गवर्नर होकर जाने लगे तो निमाई बाबू को एक ऊंचे ओहदे पर मुकर्रर करके पंजाब चलने का ऑफर दिया, लेकिन निमाईबाबू ने कानपुर छोडऩे से इन्कार कर दिया।

लहंगों का होता है कारोबार

बंगाली मोहाल में इस समय सौ से अधिक बंगाली परिवार रहते हैं। यहां संकरी गलियों में यों तो विभिन्न तरह के कारोबार चलते हैं, लेकिन शादी-ब्याह के लिए लहंगों का काम यहां सबसे ज्यादा होता है। हर तरह के कीमती लहंगे यहां बिक्री और किराए के लिए भी मिलते हैं। अधिकतर बंगाली परिवार सराफा के कारोबार से जुड़े हैं, खासकर कारीगरी में उनका हुनर काफी अच्छा माना जाता है। बंगाली परिवारों की मौजूदगी और पश्चिम बंगाल से भी लोगों के आने के कारण यहां बंगाली खान-पान का होटल भी है।


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