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लौट गया 'पहला गिरमिटिया' : पद्मश्री से सम्मानित प्रख्यात साहित्यकार गिरिराज किशोर का कानपुर में निधन

साहित्यकार व आइआइटी कानपुर में कुलसचिव रहे पद्मश्री गिरिराज किशोर का जन्म आठ जुलाई 1937 को उनका जन्म प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुआ था।

By Dharmendra PandeyEdited By: Published: Sun, 09 Feb 2020 11:10 AM (IST)Updated: Sun, 09 Feb 2020 11:09 PM (IST)
लौट गया 'पहला गिरमिटिया' : पद्मश्री से सम्मानित प्रख्यात साहित्यकार गिरिराज किशोर का कानपुर में निधन
लौट गया 'पहला गिरमिटिया' : पद्मश्री से सम्मानित प्रख्यात साहित्यकार गिरिराज किशोर का कानपुर में निधन

कानपुर, जेएनएन। कालजयी रचना पहला गिरमिटिया के लेखक व पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार गिरिराज किशोर का रविवार सुबह उनके निवास पर निधन हो गया। मूलत: मुजफ्फरनगर निवासी गिरिराज किशोर कानपुर में बस गए थे और यहां के सूटरगंज में रहते थे। वह 83 वर्ष के थे। उनके निधन से साहित्य के क्षेत्र में शोक छा गया। 

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प्रख्यात साहित्यकार पद्मश्री गिरिराज किशोर का रविवार सुबह हृदय गति रुकने से निधन हो गया। उन्होंने अपना देह दान किया है इसलिए सोमवार को सुबह 10:00 बजे उनका अंतिम संस्कार होगा। उनके परिवार में उनकी पत्नी दो बेटियां और एक बेटा है। तीन महीने पहले गिरने के कारण गिरिराज किशोर के कूल्हे में फ्रैक्चर हो गया था। जिसके बाद से वह लगातार बीमार चल रहे थे।

वह हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार होने के साथ एक कथाकार, नाटककार और आलोचक भी थे। उनके सम-सामयिक विषयों पर विचारोत्तेजक निबंध विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होते रहे। उनका उपन्यास ढाई घर भी बहुत लोकप्रिय हुआ। वर्ष 1991 में प्रकाशित इस कृति को 1992 में ही साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। गिरिराज किशोर का पहला गिरमिटिया नामक उपन्यास महात्मा गाँधी के अफ्रीका प्रवास पर आधारित था। इस उपन्यास ने उन्हें साहित्य के क्षेत्र में विशेष पहचान दिलाई। 

साहित्यकार व आइआइटी कानपुर में कुलसचिव रहे पद्मश्री गिरिराज किशोर का जन्म आठ जुलाई 1937 को उनका जन्म प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुआ था। उनके बाबा जमींदार थे, इनके घर में पूरा जमींदारी की प्रथा थी, मगर उनको वह पसंद नहीं थी। मुजफ्फरनगर के एसडी कॉलेज से स्नातक करने के बाद गिरिराज किशोर घर से सिर्फ 75 रुपये लेकर इलाहाबाद आ गए।

इसके बाद फ्री लांसिंग के तौर पर पेपर व मैगजीन के लिए लेख लिखना शुरू किया। उससे जो रुपए मिल जाते अपना खर्च चलता था। इलाहाबाद में 1960 में एमएसडब्ल्यू पूरा कर अस्सिस्टेंट एम्प्लॉयमेंट ऑफिसर बनने का मौका मिल गया। आगरा के समाज विज्ञान संस्थान से उन्होंने 1960 में मास्टर ऑफ सोशल वर्क की डिग्री ली।

वह उत्तर प्रदेश में 1960 से 1964 तक सेवायोजन अधिकारी व प्रोबेशन अधिकारी भी रहे। इसके बाद अगले दो वर्ष प्रयागराज में स्वतंत्र लेखन किया। जुलाई 1966 से 1975 तक वह तत्कालीन कानपुर विश्वविद्यालय में सहायक और उपकुल सचिव रहे। वर्ष 1975 से 1983 तक वे आइआइटी कानपुर में कुलसचिव भी रहे। आइआइटी कानपुर में ही 1983 से 1997 के बीच रचनात्मक लेखन केंद्र की स्थापना की और उसके अध्यक्ष रहे। जुलाई 1997 में वह सेवानिवृत्त हो गए। नौकरी के दौरान भी इस साहित्यकार ने अपने लेखन के कार्य को नहीं छोड़ा। महात्मा गांधी पर रिसर्च जारी रखी। 

पहला गिरमिटिया के रचयिता गिरिराज किशोर मुजफ्फरनगर के मोतीमहल में जन्मे थे। उनके प्रख्यात उपन्यास लोग की पृष्ठभूमि मुजफ्फरनगर पर ही आधारित है। इसमें डीएवी इंटर कालेज के जिक्र है। जमींदार परिवार के गिरिराज किशोर को साहित्य से प्रेम था। हिंदी दिवस आते ही हिंदी भाषा के उत्थान को लेकर बातें शुरू होने पर भी वह काफी व्यथित थे। उनका मानना था कि इस पर चर्चा का कोई विशेष दिवस तय न हो। इसको लेकर चिंता लगभग रोज होनी चाहिए। वरिष्ठ साहित्यकार पद्मश्री गिरिराज किशोर का विचार था कि साहित्य को अंतर्मन से जानने की जरूरत है। गिरिराज किशोर कहते थे कि आज हिंदी को लोग पसंद नहीं कर रहे, खासतौर पर अंग्रेजी  को वरीयता देने वाला वर्ग। आज सिर्फ हिंदी को आगे बढ़ाने की बात ना हो वरन् इसके लिए काम भी हो। उनके मुताबिक साहित्य को अंतर्मन से जानने की जरूरत होती है।

एक दौर था जब बड़ी संख्या में साहित्यकार थे लेकिन आज साहित्यकारों की पीढ़ी के बीच काफी बड़ा गैप है। नई पीढ़ी को साहित्य के क्षेत्र में आगे लाया जाए। इसके लिए हर स्कूल, कॉलेज में बच्चों में रचनात्मक लेखन की प्रतिभा को निखारने का कार्य किया जाए। उनके मुताबिक आज जो बच्चों को टीवी और नेट के जरिए दिखाया जा रहा है, वैसा तो कभी नहीं रहा। उन्हें जब तक अच्छे हिंदी साहित्य का माध्यम नहीं मिलेगा वे यह नहीं समझेंगे कि उनकी समाज के प्रति क्या जिम्मेदारी है। इसके लिए स्कूलों में भी अच्छे शिक्षकों की जरूरत है जो बच्चों को साहित्य के प्रति जागरूक कर सकें। जब ऐसा होगा तभी हम भविष्य में अच्छे साहित्यकार निकाल सकेंगे। 

महात्मा गांधी का प्रभाव

गिरिराज किशोर ने देश के आजाद होने के कुछ दिन बाद ही 1947 में महात्मा गांधी को पहली बार देखा था। जब गांधी दिल्ली से हरिद्वार रिफ्यूजी कैम्प में घायलों को देखने जा रहे थे। उसी दौरान गांधी जी की बस उनके स्कूल के पास से गुजर रही थी। तभी वहां खड़े कुछ ग्रामीणों ने उनसे मिलने के लिए उनकी बस जबरन रुकवा ली। यह एक इत्तेफाक ही था कि जब गांधी जी ने जिस खिड़की से अपना चेहरा बाहर निकाल कर लोगों से बात की उस खिड़की के नीचे गिरिराज किशोर खड़े थे। उसी समय उन्होंने कहा था कि देश आजाद हो गया है, आप भूल जाइए गांधी को, अब देश का हर नागरिक गांधी है। गांधी जी के इसी वाक्य ने गिरिराज किशोर के सोचने का तरीका बदल दिया।  उन्होनें गांधी के ऊपर 1991 से गिरमिटया किताब लिखनी शुरू की, जो 1999 में जाकर पूरी हुई। 

साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में गिरिराज को 25 मार्च 2007 में पद्मश्री अवार्ड से नवाजा जा चुका है। इस अवार्ड के साथ भारतेंदु सम्मान, मध्यप्रदेश साहित्य कला परिषद् का वीरसिंह देवजू राष्ट्रिय सम्मान, पहला गिरमिटिया के लिए केके बिरला फाउंडेशन का व्यास सम्मान मिल चुका है।

हिंदी प्रमोशन पर आईआईटी कानपुर ने कर दिया निलंबित

इलाहाबाद में नौकरी करने के दौरान 1966 में कानपुर यूनिवर्सिटी में रजिस्ट्रार बने। इसके बाद 1975 में इस साहित्यकार ने कानपुर आईआईटी में रजिस्ट्रार बने। जब आईआईटी कानपुर में ज्वाइन किया तो वहां अंग्रेजी भाषा का बोलबाला था। कैम्पस में हिंदी बोलने पर मना था। ऐसे में वहां काम करने वाले फोर्थ क्लास के कर्मचारियों को बेहद परेशानी होती थी।  हिंदी प्रचार प्रसार के दौरान के डायरेक्टर और स्टाफ प्रोफेसरों की तीखी आलोचना भी झेलनी पड़ी। इन सभी आलोचना के बीच भी आईआईटी में सेन्ट्रल क्रिएटिव राइटिंग सेंटर की शुरुआत की। इसके बाद आईआईटी में हिंदी प्रचार-प्रसार 1979 में निलंबित कर कॉलेज से बाहर कर दिया गया।


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