World population day : रामकृपाल ने बनाए ऐसे हुनरमंद हाथ, देश-विदेश तक है उनकी मांग
कानपुर देहात के मल्हानपुरवा ग्राम में हर घर में एक पेशेवर रसोइया है जो फास्ट फूड और विदेशी व्यंजन बनाने में माहिर हैं।
कानपुर [गोल्डन द्विवेदी]। 31 साल पहले रोजगार की तलाश में गांव छोड़ देने वाले रामकृपाल निषाद जब 'हुनरमंद' बन लौटे तो गांव की तकदीर भी बदल गई। हर हाथ हुनरमंद हो गया। कानपुर, उत्तर प्रदेश के मल्हानपुरवा गांव के रसोइयों की मांग देश-विदेश तक जा पहुंची है। आज विश्व जनसंख्या दिवस है। मल्हानपुरवा के ये हुनरमंद परिवार जनसंख्या नियोजन यानी 'हर हाथ को काम' की गूढ़ अवधारणा को सहजता से बयां कर दे रहे हैैं।
जानिए, रामकृपाल की कहानी
एक जिद, उसे पूरा करने के लिए एक कड़ा फैसला और फिर लगन से मेहनत कर फैसले को सही साबित करने की ललक, इससे न केवल एक व्यक्ति का भविष्य सुधर सकता है, बल्कि समाज को नई दिशा भी मिलती है। पिता की तरह पल्लेदारी न करने का संकल्प लेकर 31 साल पहले घर और गांव छोड़ देने वाले रामकृपाल निषाद इसकी बानगी हैं। विदेशी व्यंजन बनाना सीखकर न केवल खुद का भविष्य संवारा बल्कि गांव लौटकर साथियों की पल्लेदारी छुड़वाकर उन्हें प्रशिक्षण देकर हुनरमंद बनाया। इनकी कहानी बताती है कि जहां कौशल है, वहां विकास है और कौशल विकास का क्षेत्र असीमित अवसरों से भरा हुआ है। हर गांव को रामकृपाल जैसे किसी हुनरमंद प्रशिक्षक की दरकार है, जो गांव को विकास की राह पकड़ा सकता है।
हर घर में एक पेशेवर रसोइया
500 की आबादी वाले मल्हानपुरवा गांव के हर घर में आज एक पेशेवर रसोइया है। रसोइये भी ऐसे, जिनका समूह अब दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों के अलावा देश-विदेश तक पहुंच रखता है। इटैलियन, चाइनीज, मैक्सिकन समेत तमाम देशी-विदेशी व्यंजन बनाने में इन रसोइयों को महारत हासिल है। गांव में रहने वाले जयमल पल्लेदार थे। चार बेटों में सबसे बड़े रामकृपाल को इंटर तक पढ़ाया ताकि नौकरी कर घर की दशा सुधारे। नौकरी नहीं मिली तो पिता ने गरीबी का हवाला देकर पल्लेदारी (बोझा ढोने) में लगाया। पल्लेदारी में जी-तोड़ मेहनत के बाद भी जरूरत पूरी न होते देख 1988 में 18 साल की उम्र में वह बिना बताए कानपुर शहर चले आए।
किसी काम को छोटा नहीं समझा
आगे बढऩे की ललक और खाना बनाने के शौकीन रामकृपाल ने किसी काम को छोटा न मानते हुए कप-प्लेट धोने से भी गुरेज नहीं किया और बंगाली मुहाल के बटेश्वर झा व मुन्नालाल की मिठाई की दुकान पर यह काम किया। काम के दौरान फास्ट फूड बनते ध्यान से देखते थे। वहां के रसोइये की तबीयत खराब होने पर रामकृपाल को चाउमिन स्टाल पर काम करने को कहा गया। यहीं से जिंदगी पलट गई। लोगों ने चाउमिन को बेहद पसंद किया तो उन्हें स्थायी कर दिया गया। वह चाइनीज के अलावा अन्य विदेशी व्यंजन बनाना सीखने लगे।
साथियों को भी ले गए साथ
ठीक दो साल बाद रामकृपाल गांव लौटे। साथियों का वही पुराना हाल देखकर अपने पांच दोस्तों को कानपुर ले आए और विदेशी व्यंजन बनाना सिखाया। फिर शादी विवाह के आर्डर खुद लेने लगे। काम बढ़ा तो गांव के बेरोजगार युवकों को हेल्पर के तौर पर लाने लगे और खाने, रहने की व्यवस्था के साथ वेतन देकर काम सिखाया। सभी के अलग-अलग समूह बनाकर आर्डर पर भेजने लगे। वर्ष 2005 तक काम बढ़ा तो साथियों को खुद आर्डर लेने और गांव के बेरोजगार युवाओं को कुकिंग सिखाने के लिए प्रेरित किया। फिर तो आसपास के गांव के युवक भी जुडऩे लगे।
झोपडिय़ों की जगह अब पक्के मकान...
अब मल्हानपुरवा ही नहीं आसपास के गांवों के सैकड़ों युुवा विदेशी व्यंजन बनाने में माहिर हो चुके हैैं। गांव में झोपडिय़ों की जगह पक्के मकान हैं। रामकृपाल का तो अब कानपुर में भी अपना मकान है। गांव के कई परिवारों के बच्चे कान्वेंट स्कूलों में पढ़ रहे हैं। गांव के सुनील, गोविंद, रजत, श्यामलाल, सूरज, ङ्क्षरकू, लक्ष्मण, रामकुमार, रामभवन, दुर्गेश आदि कहते हैं, रामकृपाल ने पल्लेदारी छुड़वाकर कुकिंग सिखाई। हमारे साथ गांव की स्थिति भी बदल दी। आज सभी सम्मान से जी रहे हैं।