यथायोग्य सम्मानपूर्वक निवेदन कि..., अधिकारियों ने अटका रखा था नेताजी सुभाषचंद्र बोस का माण्डले जेल से भेजा पत्र
बंगीय व्यवस्थापिका सभा की सदस्यता के लिए चुनाव में मनोनीत होने पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 1930 में माण्डले जेल से पत्र भेजा था जिसका वर्णन उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘ तरुण का स्वप्न’ में किया था ।
कानपुर, [आरती तिवारी]। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने बंगीय व्यवस्थापिका सभा की सदस्यता के लिए चुनाव में मनोनीत होने पर 1930 में माण्डले जेल से पत्र भेजा था, जिसे अधिकारियों ने अटका रखा था। उन्होंने इस पत्र का जिक्र अपनी आत्मकथा ‘तरुण का स्वप्न’ में किया था। पुस्तक से साभार लिये गए नीचे दिए अंश में उस पत्र का पूरा वर्णन है...।
यथायोग्य सम्मानपूर्वक निवेदन कि- बंगीय व्यवस्थापिका सभा की सदस्यता के लिए मैं उत्तर कलकत्ता निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस द्वारा मनोनीत होकर खड़ा हुआ हूं। जनमत मेरे अनुकूल है यह जानकर, स्वदेश सेवी और शुभाकांक्षियों के उपदेश से मैं देश की सेवा का अधिकतर सुयोग पाने की आशा से सदस्यता के लिए खड़ा हुआ हूं। किंतु इसके पहले मुझे जिस प्रकार आपके सामने उपस्थित होना चाहिए था, उस तरह नहीं हो सकता। किंतु आशा करता हूं कि मेरी वर्तमान अवस्था जानकर आप क्षमा कर देंगे। जेल में रहते हुए निर्वाचन के लिए खड़ा होना चाहिए या नहीं और निर्वाचन के लिए खड़े होने में कुछ सार्थकता है या नहीं, इस पर मैंने अच्छी तरह विचार किया है। राष्ट्रीय महासभा ने भी इस विषय पर विचार किया है। देशबंधु चितरंजनदास होते तो वे भी मुझे खड़े होने के लिए कहते, ऐसा मेरा विश्वास है।
श्री अनिलवरण राय और सत्येंद्रचंद्र मिश्र महोदय ने पुनर्निर्वाचन के समय जो कुछ कहा था, उससे मेरे कथन का अनुमोदन होता है। सब बातों पर अच्छी तरह विचार कर और समझकर कि निर्वाचन के लिए उम्मीदवार होने में सार्थकता है, मैंने आपके सामने पत्र द्वारा उपस्थित होने का साहस किया है। इस निश्चय पर पहुंचने में जनमत का अनुकूल होना एक बहुत बड़ा कारण है, यह कहना ही होगा। अगर सुयोग होता और संभव होता तो मैं स्वयं आपकी सेवा में उपस्थित होकर अपने राजनैतिक मतामत व्यक्त करता तथा आपका उपदेश और परामर्श जानना चाहता। किंतु सरकार द्वारा मैं इस अधिकार से वंचित कर दिया गया हूं। लगभग दो वर्ष हुए मैं बिना विचार और बिना न्याय जेल में बंद हूं। इन दो वर्षों में बहुत अनुरोध करने पर भी सरकार ने मुझे किसी भी अदालत के सामने उपस्थित नहीं किया। यहां तक कि अधिकारियों के पास मेरे विरुद्ध क्या अभियोग है और क्या गवाहियां हैं, यह भी मुझे किसी भी तरह से नहीं बतलाया गया।
अपने अपराध के संबंध में यदि मुझे कुछ कहना पड़े तो मैं यही कह सकता हूं कि पराधीन जाति की चिर आचरित पद्धति को छोड़कर कांग्रेस के एक साधारण सेवक की हैसियत से स्वदेश सेवा में मन अर्पण करने का मैंने प्रयास किया है। जिसके फलस्वरूप मैं जेल में ही बंद नहीं किया गया बल्कि देश से दूर भेज दिया गया। अपनी मातृभूमि की मिट्टी और जल से मुझे वंचित कर दिया गया। तब भी मेरे लिए संतोष की यही बात है कि मेरा जेल जाना व्यर्थ नहीं हुआ। आज मेरी संपूर्ण व्यथा रंजित होकर, गुलाब की तरह खिल गई है। यहां आने के पहले मैं बंगाल को, भारत को प्रेम करता था। किंतु देश से दूर आने पर प्यारे बंगाल को, प्रिय भारत को हजार गुना अधिक चाहने लगा हूं। बंगाल का आकाश, बंगाल की वायु, स्वप्न प्रस्तुत, स्मृति आच्छादित बंगाल का मोहन रूप आज मेरे सामने कितना मनोहर, कितना पवित्र, कितना सत्य है, यह मैं कैसे बतलाऊं?
जिस आंतरिक आत्मोत्सर्ग का आदर्श लेकर मैं कर्मभूमि में अवतीर्ण हुआ था, निर्वासन की पारसमणि मुझे प्रतिदिन उसके लिए योग्यतर बना रही है। जो चिरंतन सत्य बंगाल की भागीरथी और बंगाल के शस्यश्यामल क्षेत्रों में मूर्त हुआ है, बंगाल के जिस धर्म को बंकिम से लेकर देशबंधु तक ने साधना द्वारा उपलब्ध किया था, बंगाल का जो भुवनमोहन रूप कितने शिल्पियों, कलाकारों, कवियों और साहित्यिकों की तूलिका और लेखनी का विषय है, आज उसका आभास पाकर मैं कृतकृत्य हूं। देश की इसी अनुभूति के पुण्य प्रताप से जेल जीवन के ये दो वर्ष सार्थक हुए हैं। इस प्रकार के आवेदन में अपना परिचय देने की विधि बहुत दिन से चली आ रही है किंतु मेरे पास ऐसा कुछ नहीं है जिसका परिचय देकर मैं आपकी सहायता पाने का दावा कर सकूं।
पांच वर्ष पहले जब उत्ताल महोदधि की तरंगों की तरह भारत के प्राण भारतमाता के चरणों में उत्सर्ग होने के लिए उतावले हो रहे थे, उस समय विश्वविद्यालय से निकलकर मैं कर्मक्षेत्र में आया था। अपने जीवन को पूर्ण रूप से विकसित कर माता के चरणों में अंजलि चढ़ा दूंगा और इसी आंतरिक उत्सर्ग द्वारा जीवन की पूर्णता प्राप्त करूंगा, इसी आदर्श से मैं अनुप्राणित हुआ था। मेरे इस क्षुद्र किंतु घटनापूर्ण जीवन के ऊपर से जो-जो तूफान गुजरे हैं, उन्हीं विघ्न और विपत्तियों द्वारा मैंने अपने आपको समझने और पहचानने की चेष्टा की है। यौवन के प्रभात में मैंने जिस कंटकमय पथ का अवलंबन किया, निश्चय ही उसी पथ पर अंत तक चल सकूंगा, अज्ञात भविष्य को सामने रखकर जिस व्रत को मैंने ग्रहण किया था, उसका उद्यापन किए बिना विरत नहीं होऊंगा।
अपने प्राण और ज्ञान को निचोड़कर मैंने यही सत्य प्राप्त किया है कि पराधीन जाति का सब कुछ, शिक्षा-दीक्षा, कर्म सब व्यर्थ है, यदि वह स्वाधीनता प्राप्ति में सहायक और उसके अनुकूल नहीं होता। इसीलिए आज मेरे हृदय के अंतरतम प्रदेश से निकलकर यह वाणी हमेशा मेरे कानों में प्रतिध्वनित होती रहती है, ‘स्वाधीनता हीतनाथ के बांचिते चाय रे, के बांचिते चाय।’ मैं हाथ जोड़कर आपसे यह प्रार्थना करता हूं कि आप लोग मुझे आशीर्वाद दें कि स्वराज्य लाभ की पुण्य प्रचेष्टा ही मेरा जप, तप, स्वाध्याय, साधन और मुक्ति का सोपान हो तथा जीवन के अंतिम चरण तक मैं भारतीय मुक्ति संग्राम में लगा रहूं। आत्मोत्सर्ग के पवित्र और मूर्तिमान विग्रह प्रात: स्मरणीय देशबंधु के चरणों में मैंने देशसेवा की दीक्षा-शिक्षा ली है।
उनके रहते हुए, सब विपत्तियों को तुच्छ मानकर, उनकी पताका लेकर चलता रहा हूं। उनके न रहने पर उनके लोकोत्तर चरित्र से शिक्षा लेकर उसे हृदय में धारण कर तथा उनके महिमामय जीवन के आदर्श को सामने रखकर एकनिष्ठ भाव से जीवन पथ पर अग्रसर होऊंगा, यही संकल्प मन में कर रखा है। सर्व मंगलमय भगवान मेरी रक्षा करें। इस समय जो निर्वाचन समस्या है, उसका हल आपके ही ऊपर है। क्योंकि इस निर्वाचन संग्राम में एक प्रवासी राजबंदी पहाड़, नदी, समुद्र पार रहकर, इतनी दूर से क्या कर सकता है?
देश का अकिंचन सेवक होने पर भी आपके लिए तो मैं बिल्कुल अपरिचित नहीं हूं। सबके साथ प्रत्यक्ष परिचय न होने पर भी क्या आपके ऊपर मेरा कोई दावा नहीं है? मैं प्रार्थना करता हूं, मेरी जय का अर्थ है, राष्ट्रीय महासभा की जय, जनमत की जय, आपकी जय। इस व्यवसाध्य निर्वाचन संग्राम में आप ही मेरी आशा, भरोसा, सहारा सब कुछ है। आपकी सेवा कर कृतार्थ बनूं, यही मेरी आकांक्षा है। मुझे विश्वास है कि आप मुझे सेवा का सुयोग और अधिकार देकर धन्य करेंगे और मैं क्या कहूं? आप ही देश के मूर्तस्वरूप हैं। वतन से दूर, समुद्र पार निर्वासित बंदी का श्रद्धापूर्वक अभिवादन स्वीकार कीजिए। इति!
(नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आत्मकथा ‘तरुण का स्वप्न’ से साभार। बंगीय व्यवस्थापिका सभा की सदस्यता के लिए चुनाव में मनोनीत होने पर 1930 में माण्डले जेल से भेजा गया पत्र, जिसे अधिकारियों ने अटका रखा था)