चिडिय़ाघर से कम नहीं है अस्पताल, राजनीति का अखाड़ा बन गया कॉलेज Kanpur News
शहर की स्वास्थ्य सेवाओं की हकीकत सरकारी दावों से कहीं विपरीत है।
कानपुर। स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी को लेकर तमाम दावे किए जा रहे हैं लेकिन शहर में हकीकत कहीं उलट है। शहर आसपास जिलों का सबसे बड़ा अस्पताल है तो डॉक्टरों की भी फौज है। अस्पताल और डॉक्टरों की पर्दे के पीछे की हकीकत पर रोशनी डालती एक रिपोर्ट...।
अस्पताल बना चिडिय़ाघर
जिले के सबसे बड़े अस्पताल हैलट की व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई है। कहने को तो यहां कर्मचारियों की भारी-भरकम फौज है, पर दिखता कोई नहीं है। दरअसल यहां निगरानी के लिए कोई सिस्टम ही नहीं है। इसकी वजह ये है कि यहां अधिकतर कर्मचारी राजनीतिक दलों और जनप्रतिनिधियों से ताल्लुक रखते या फिर हैलट-मेडिकल कॉलेज के अधिकारियों-कर्मचारियों के सगे-संबंधी हैं। इसलिए मनमानी चल रही है। जब मजऱ्ी आए और जब मन किया घर बैठ गए।
किसी का दबाव भी उन पर नहीं चलता। कर्मचारियों के नहीं रहने से अस्पताल की स्थिति अराजक होती जा रही है। ठीक से साफ-सफाई नहीं होने से सूअर और कुत्ते घूमते रहते हैं। जूठन और गंदगी पड़ी रहने से बेसहारा गाय एवं सांड़ों का जमावड़ा रहता है। यहां इलाज को आने वाले लोग अब यह कहने लगे हैं कि जिले का सबसे बड़ा अस्पताल है या चिडिय़ाघर, जहां सूअर-कुत्ते वार्ड तक घुस आते हैं।
खिल गईं बांछें
शासन स्तर से जिले के स्वास्थ्य महकमे में अचानक फेरबदल कर दिया गया। यहां मलाईदार पटल संभाल रहे अधिकारी को पड़ोस के जिले में भेज दिया गया। इस फेरबदल का जबरदस्त फायदा महकमे के बड़े अधिकारी को मिला है, इसकी वजह वित्तीय वर्ष की समाप्ति से ठीक पहले हुआ बदलाव है। जो अधिकारी यहां से गए हैं, उन्हें वहां महकमे की कमान मिली है, फिर भी जाना नहीं चाहते थे।
स्थानांतरण रुकवाने के लिए खूब दौड़-भाग की पर सफल नहीं हुए। स्थानांतरण रुकवाने को खूब हाथ-पांव मारते रहे, जबकि बड़े अधिकारी उन्हें वहां भिजवाने के लिए जोर लगाए रहे। शासन से भी दो टूक जवाब मिला, सीधे जाकर योगदान दीजिए, वरना कार्रवाई के लिए तैयार रहिए। बेचारे 'सबकुछ' छोड़कर यहां से चले गए। चर्चा है कि साल भर मलाई इकट्ठा करते रहे और बड़े साहब एक झटके में सब चट कर गए इसलिए बड़े साहब की आजकल बांछे खिली हैं।
कॉलेज के फूफा
मेडिकल कॉलेज के एक प्रोफेसर खुद तो कोई काम करते नहीं हैं। दूसरों के काम में भी टांग अड़ाते रहते हैं। उन्हें काम आए या न आए, लेकिन हर बात पर टोका-टोकी आदत में शुमार है। वह अपने विभागीय कार्यों को छोड़ कर अधिकतर समय प्राचार्य कार्यालय में ही गुजारते हैं। वहां जरूरी काम लेकर आने वालों को प्राचार्य से पहले की लपक कर सलाह देने लगते हैं।
भले ही उन्हें उसके बारे में कोई जानकारी हो या न हो। अगर गलती से उनकी बात कट गई तो मुंह फुला कर बैठ जाते हैं। मन मुताबिक काम न होने पर बात-बात पर नाराज हो जाते हैं। उनकी इस आदत ही वजह से कॉलेज के अधिकारी और कर्मचारियों के बीच वह फूफा के नाम से चर्चित हैं। उनकी रुचि सिर्फ नाच-गाने और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में है इसलिए उनकी दखलंदाजी से बचने को गीत-संगीत में लगा देते हैं, ताकि फूफा खुश रहें।
मार दी गुलाटी
मेडिकल कॉलेज आजकल राजनीतिक गतिविधियों का गढ़ बना है। आए दिन कोई न कोई कार्यक्रम होते रहते हैं। वहीं पहले जिनका पूर्ववर्ती सरकारों में दबदबा था। उन सभी ने गुलाटी मार कर पाला बदल दिया है। दरअसल सभी कॉलेज की मुखिया के खास बनने की होड़ में लगे हैं। हद तो यह है कि कॉलेज के ही एक प्रोफेसर जो पहले की सरकार में सबसे ऊंचे ओहदे पर थे। उस समय उनका रुतबा देखते बनता था। अपने ही साथियों को ऐसे मथा कि सब छिटक कर प्रदेश भर के कॉलेजों में पहुंच गए। अब उनके सितारे गर्दिश में आए तो उन्होंने भी पाला बदल दिया। अब कॉलेज की मुखिया के शुभचिंतक बनने का दावा करते घूम रहे हैं। जब से वह पिछलग्गू बने हैं, उनके साथी और जूनियर यह कहने से कतई नहीं चूक रहे हैं कि बच्चों का इलाज करते-करते अब उनका दिल भी बच्चों सा हो गया है।