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कानपुरः डॉ. महमूद हुसैन रहमानी- अंधेरी जिंदगियों को रोशन करने का जुनून

श्रीलंका दुनिया का इकलौता देश है, जो अन्य देशों को भी कॉर्निया दान करता है। इसकी वजह यह है कि वहां मृत्योपरांत नेत्रदान शत प्रतिशत है। इससे श्रीलंका में जरूरत तो पूरी हो ही जाती है, वह दूसरे देशों की भी मदद कर देते हैं।

By Nandlal SharmaEdited By: Published: Mon, 09 Jul 2018 06:00 AM (IST)Updated: Mon, 09 Jul 2018 01:32 PM (IST)
कानपुरः डॉ. महमूद हुसैन रहमानी- अंधेरी जिंदगियों को रोशन करने का जुनून

दुनिया के रंग आंखों से ही देखे जाते हैं, अगर किसी के नेत्र में ज्योति नहीं है। तो उसके लिए यह संसार एक अंधेरे कुएं की तरह है। हमारे देश में ऐसे बहुत से लोग हैं जो कि समय से नहीं मिल पाने वाले साधारण इलाज के चलते अपनी आंखों की रोशनी से महरूम हो जाते हैं। इसी जरूरत को समझा कानपुर के डॉ. महमूद हुसैन रहमानी ने।

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कानपुर के डॉ. रहमानी देशभर में नेत्रहीनों (कॉर्नियल ब्लाइंड) के लिए रोशनी की एक किरण हैं। वह तमाम जरूरतमंदों को आंखों का नूर देकर उस परिभाषा को साकार कर चुके हैं कि डॉक्टर धरती के भगवान होते हैं। 1989 से नेत्रदान महादान अभियान चला रहे एम्पायर एस्टेट निवासी डॉ. रहमानी अब तक 1034 नेत्रहीनों का निशुल्क कॉर्नियल ट्रांसप्लांट कर उनकी जिंदगी में उजाले की खुशियां भर चुके हैं।

नवीन मार्केट स्थित सोमदत्त प्लाजा में गॉड सर्विस आई क्लीनिक चलाने वाले डॉ. महमूद हुसैन रहमानी शिफा आई रिसर्च सेंटर के नाम से चमनगंज में तीस बेड का अस्पताल चला रहे हैं। नेत्रदान महादान अभियान चलाकर डॉ. रहमानी यह भरोसा जुटाने में भी कामयाब रहे हैं कि जो भी मृत्योपरांत नेत्रदान करना चाहे, वह किसी सरकार या संस्था से संपर्क की बजाए इन्हें कॉल करता है। इनके पास दान के कॉर्निया आते हैं, जिन्हें वह पंजीकरण करा चुके नेत्रहीनों में ट्रांसप्लांट कर देते हैं।

आजाद हिंद फौज में महिला विंग की कमांडर रहीं कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने भी डॉ. रहमानी के मार्फत ही मृत्योपरांत नेत्रदान किया था। डॉ. रहमानी बताते हैं कि निजी अस्पताल में कॉर्निया ट्रांसप्लांट पर एक से डेढ़ लाख रुपये खर्च आता है। मगर, वह एक पैसा भी मरीज से नहीं लेते। दस दिन में दवाई आदि पर होने वाला 30 से 35 हजार रुपये का खर्च वह खुद वहन करते हैं। इसके बाद नेत्रदाता के नाम पर परिजनों को अमर ज्योति सम्मान भी देते हैं। उनकी बड़ी बेटी डॉ. अर्शिया रहमानी और भतीजा डॉ. जिया उर रहमान भी नेत्र सर्जन हैं, जो इस सेवा कार्य में उनके साथ जुटे हुए हैं।

डॉ. रहमानी कहते हैं कि सरकार को नेत्रदान और कॉर्निया ट्रांसप्लांट को गंभीरता से लेना चाहिए। सरकारी मेडिकल कॉलेजों में कॉर्निया ट्रांसप्लांट के लक्ष्य निर्धारित कर दिए जाने चाहिए। इसके साथ ही नेत्रदान को प्रोत्साहित करने के लिए योजना बने। जो भी कॉर्निया दान करने के लिए पंजीकरण करा ले, उसे आई डोनेटर का कार्ड जारी कर सरकारी अस्पतालों में उसे इलाज में रियायत दी जाए।

मेरे लिए तो भगवान ही हैं डॉ. रहमानी
बर्रा में फैब्रिकेशन का कारखाना चलाने वाले कल्लू विश्वकर्मा डॉ. रहमानी को भगवान का ही दर्जा देते हैं। इसके पीछे वजह भी उतनी बड़ी है। कल्लू ने बताया कि उनकी एक आंख बचपन से खराब थी। धीरे-धीरे दूसरी आंख से भी दिखना बंद हो गया। तब उन्हें किसी से डॉ. रहमानी के बारे में पता चला तो उनसे संपर्क किया।

डॉ. रहमानी ने जांच में पाया कि कॉर्नियल ट्रांसप्लांट से रोशनी आ जाएगी। 14 अक्टूबर 2014 को ऑपरेशन हुआ, जिसके बाद जिंदगी सामान्य हो गई। मगर, तीन साल बाद बाइक चलाते समय उसी आंख में तिनका चला गया। मवाद पड़ने से आंख से दिखना फिर बंद हो गया। उसके बाद तो कारखाना कारीगरों के भरोसे छोड़ना पड़ा। कहीं आने-जाने के लिए परिचितों की मदद लेनी पड़ती थी। दोबारा डॉ. रहमानी से संपर्क किया तो एक दिसंबर 2017 को फिर कॉर्निया ट्रांसप्लांट कर उन्होंने रोशनी दे दी।

कम नहीं हो रहा नेत्रहीनों का आंकड़ा
डॉ. महमूद हुसैन रहमानी ने बताया कि 80 के दशक में जब उन्होंने पढ़ाई पूरी की, तब भी देश में कॉर्नियल ब्लाइंडनेस का आंकड़ा 35 से 40 लाख था। उसके बाद से नेत्रदान महादान का सरकारी अभियान तो चलता रहा, लेकिन अब तक लोग उतने जागरूक नहीं हुए। कॉर्निया ट्रांसप्लांट भी उतने नहीं हो रहे। यही वजह है कि अभी आंकड़ा 35-40 लाख के बीच ही है।

कॉर्निया दान करने वाला इकलौता देश है श्रीलंका
श्रीलंका दुनिया का इकलौता देश है, जो अन्य देशों को भी कॉर्निया दान करता है। इसकी वजह यह है कि वहां मृत्योपरांत नेत्रदान शत प्रतिशत है। इससे श्रीलंका में जरूरत तो पूरी हो ही जाती है, वह दूसरे देशों की भी मदद कर देते हैं।

आठ साल बाद दान मिला पहला कॉर्निया
नेत्रदान महादान अभियान की शुरुआत डॉ. रहमानी ने 1989 में की थी। वह बताते हैं कि उसके बाद आठ साल तक एक भी नेत्रदाता सामने नहीं आया था। मगर, उन्होंने हार नहीं मानी और अभियान के तहत शिविर लगाकर लोगों को जागरूक करते रहे। 1997 में शहर के बड़े औद्योगिक घराने से ताल्लुक रखने वालीं मिसेज मर्चेंट ने सबसे पहले नेत्रदान किया। उसके बाद लोग जागरूक होने लगे। अब कॉर्निया देने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है।


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