असमय बारिश से गावों का मौसम गुलाबी है, पर घर लौटे प्रवासियों के चेहरों की रंगत उड़ी है...
लॉकडाउन में घर लौटने वालों के लिए अब अपने परिवार का पेट भरने का जरिया तलाशने की सबसे बड़ी चुनौती बनी है।
कानपुर, [महेश शर्मा]। कोरोना सिर्फ महामारी नहीं, बल्कि कई जिंदगियों के लिए ग्रहण भी बनकर आया, जिन्हें ऐसे अंधकार में धकेल दिया जहां भविष्य की रोशनी तलाशना मुश्किल हो चला है। गांव और घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर दूसरे राज्यों में हाड़ तोड़ मेहनत कर रहे कामगारों ने लॉकडाउन में भविष्य के सपने बिखरते और चकनाचूर होते देखा। जिन शहरों में वर्षो तक खून-पसीना बहाया था, वहां आसरा छिन गया। मजबूरन पत्नी और बच्चों को साथ लेकर पैदल या ट्रकों में सवार होकर संघर्ष भरी यात्रा कर गाव लौटना पड़ा। जहां, वे अब अपना पेट भरने का जरिया तलाशने की चुनौती से रूबरू हैं।
सुनिए इनका दर्द
चाहे मजदूरी करें या कर्ज लें, पेट तो भरना ही पड़ेगा यूं तो लू के थपेड़ों के दिनों में असमय बारिश से गावों का मौसम गुलाबी है, पर चार वर्ष सूरत की धागा फैक्ट्री में काम करके यमुना किनारे गांव रामपुर लौट आए रामस्वरूप निषाद का चेहरा चिंता से पीला है। सूरत में प्रति माह 9-10 हजार रुपये कमा लेते थे। जिंदगी की गाड़ी आराम से चल रही थी, मगर लॉकडाउन के झटकों से बंद ठहर गई। काम-धंधा बंद होने पर वह जमा पूंजी खर्च कर हालात सुधरने की राह देखते रहे। मगर, इंतजार आखिर कब तक। पूंजी खत्म हो गई तो वापस गांव आ गए। बेटी की पढ़ाई से लेकर पेट भरने तक की चिंता है। कुरेदते ही कहने लगे कि चाहे मजदूरी करें या कर्ज लें, पेट तो भरना ही पड़ेगा। फैक्ट्री में काम शुरू हो, तो वापस लौटें। अभी तक फैक्ट्री वालों ने संपर्क नही किया है।
फैक्ट्री मालिक ने हड़पी दिहाड़ी, पानी नहीं लेने देते थे पड़ोसी
भीतरगाव विकासखंड के गाव साढ़ निवासी सुनेद आठ वर्ष से फरीदाबाद की गलियों में घूमकर कबाड़, उनकी बीवी कनीज फैक्ट्री में तो 22 वर्षीय पुत्र राजा, 20 वर्षीय सानू कपड़े की दुकान में काम करते थे। लॉकडाउन से पहले खरीदा 30 हजार का कबाड़ 16 हजार रुपये में बेच सुनेद बीवी-बच्चों के साथ गांव लौटे। अधबने मकान में रह रहे सुनेद अब वापस जाने के बजाय गांव में ही कबाड़ का धंधा करके जीवन गुजारने के मूड में हैं। फरीदाबाद में बिताई लॉकडाउन अवधि को याद कर कनीजा की आखें गीली हो जाती हैं। बताती हैं कि पड़ोसी सरकारी नल में पानी भरने तक से रोक देते थे। आधी रात सुनसान होने पर चुपके से निकल कर पानी भरती थीं। उनके मकान मालिक ने जरूर किराया माफ किया, लेकिन फैक्ट्री मालिक ने दिहाड़ी के 20 हजार रुपये हजम कर लिए।
मुफलिसी में कट रहा जीवन, हालात सुधरने का इंतजार
कोरथा निवासी कंधई प्राइवेट लाइनमैन थे। पोल पर चढ़ कर काम के दौरान करंट की चपेट में आकर एक हाथ गंवाने के बाद परिवार चलाने का जिम्मा जीवनसंगिनी रामरती के सिर आ पड़ा तो कई वर्ष पूर्व वह तीनों बच्चों के साथ सूरत कूच कर गई थीं। जहा वह कपड़ा छपाई का काम करती थी। वहां काम बंद होने के बाद गांव लौटे तो अब खुले आसमान तले मुफलिसी का जीवन बिताने की मजबूरी है। रामरती कहती हैं कि हालात सुधरें तो वापस लौटें, वह एक एक दिन गिनकर काट रही हैं।