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पढ़िए- कौन थे देश के वीर सपूत बाजी राउत, जिन्होंने 12 वर्ष की आयु में जलायी मुक्ति की मशाल

ओडिशा के नाविक के बेटे बाजी राउत भी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के ऐसे वीर सपूत थे जिन्होंने 12 वर्ष की उम्र में अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और आज शहीदों में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में दर्ज है।

By Abhishek AgnihotriEdited By: Published: Sun, 17 Oct 2021 10:36 AM (IST)Updated: Sun, 17 Oct 2021 05:45 PM (IST)
पढ़िए- कौन थे देश के वीर सपूत बाजी राउत, जिन्होंने 12 वर्ष की आयु में जलायी मुक्ति की मशाल
वीर सपूत बाजी राउत को अंग्रेजों की गोलियां भी न डिगा सकीं।

अयोध्या, [विवेक मिश्र]। स्वाधीनता संग्राम में लाखों लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी। इनमें से कुछ ही लोगों के विषय में हमारी पाठ्यपुस्तकों में पढ़ने को मिलता है। आज हम बात कर रहे हैं भारतीय स्वाधीनता संग्राम के ऐसे ही एक वीर सपूत बाजी राउत की जिन्होंने महज 12 वर्ष की आयु में अंग्रेजों का प्रतिकार किया। जिनके बुलंद हौसलों को अंग्रेजों की गोलियां भी डिगा न सकीं। भारतीय इतिहास में उनका नाम सबसे कम उम्र के शहीद के रूप में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।

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बाजी राउत का जन्म 5 अक्टूबर, 1926 को ओडिशा के ढेंकनाल में हुआ था। उनके पिता हरि राउत पेशे से नाविक थे। जन्म के कुछ वर्ष पश्चात ही पिता का देहावसान हो गया। पालन-पोषण मां द्वारा किया गया। उस समय ढेंकनाल के राजा शंकर प्रताप सिंह देव अंग्रेजों के स्वामी-भक्त थे। अतएव शंकर प्रताप ने अंग्रेजों के आदेश पर ढेंकनाल की जनता पर क्रूरता एवं शोषण की सारी हदें पार कर दीं। इससे लोगों में राजा और अंग्रेजों के खिलाफ आक्रोश बढ़ता ही गया।

उसी समय भारतीय रेल विभाग में एक नवयुवक वैष्णव चरण पटनायक पेंटर की नौकरी करते थे। उनके द्वारा यह नौकरी करने का मूल उद्देश्य रेलवे के पास पर निश्शुल्क देशाटन एवं क्रांति की गूंज को प्रसारित करना था। पटनायक ने जनमानस को एकजुट करने का बीड़ा उठाया। इस कार्य को क्रियान्वित करने के उद्देश्य से उन्होंने एक क्रांतिकारी दल 'प्रजामंडल’ का गठन किया। इस दल में ‘वानर सेना’ नामक एक टोली भी थी, जिसमें नन्हे बालकों को अंग्रेजों के प्रतिकार की शिक्षा दी जाती थी। अंग्रेजों के विरुद्ध जनमानस की एकजुटता देखकर अंग्रेज सैन्य अधिकारियों ने राजा शंकर प्रताप की सहायता के लिए करीब ढाई सौ सैनिकों की टुकड़ी भेजी, जो अत्याधुनिक शस्त्रों से युक्त थी।

10 अक्टूबर, 1938 को अंग्रेज सिपाहियों द्वारा गांव के कुछ लोगों को पकड़कर भुवनेश्वर लाया गया। उनकी रिहाई के लिए थाने के बाहर प्रदर्शनकारियों का जनसैलाब उमड़ पड़ा। प्रदर्शन को शांत करने के लिए पुलिस ने गोलियां चलाईं, जिसमें दो प्रदर्शनकारियों की मृत्यु हो गई। इससे ग्रामीणों का आक्रोश और बढ़ गया। यह देख अंग्रेज सैनिक टुकड़ियों ने बिना समय गवाएं वहां से भागने का निर्णय किया। अंग्रेज सैनिक ढेंकनाल की ओर भागने का प्रयास कर रहे थे। जब वे ब्राह्मणी नदी के नीलकंठ घाट पर पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि घाट के किनारे एक नन्हा बालक नाव पर बैठा हुआ है। दरअसल, सैनिक जिसे नन्हा बालक समझ रहे थे, वह प्रजामंडल से दीक्षित वानर सेना का नन्हा वीर बाजी राउत था जो वहां पहरा दे रहा था। अंग्रेज सैनिकों ने बाजी से अपनी नाव से उन्हें नदी पार करा दे। जवाब में बाजी ने कोई उत्तर नहीं दिया।

दोबारा वही प्रश्न पूछे जाने पर बाजी ने न केवल नदी पार कराने से साफ इंकार कर दिया, बल्कि अपने प्रजामंडल के क्रांतिकारियों को आगाह करने के लिए जोर-जोर से चिल्लाने भी लगा। उसे ऐसा करते देख एक अंग्रेज सैनिक ने बाजी के सिर पर बंदूक की बट से वार किया। उसके सिर से रक्त की धार बहने लगी। पर इससे विचलित हुए बिना निरंतर शोर मचाकर वह अपने लोगों को आगाह करता रहा। इस पर दूसरे सैनिक ने बाजी पर पुनः वार किया। जब उसका चिल्लाना नहीं रुका, तो तीसरे सैनिक ने उसे गोली मार दी।

बाजी हमेशा के लिए शांत हो गया, किंतु उसके शोर की गूंज सुन कई साथी क्रांतिकारी घाट पर पहुंचे। भीड़ आती देख अंग्रेज सैनिक घबराहट में स्वयं नाव चलाकर भाग गए। प्रजामंडल के संस्थापक वैष्णव चरण पटनायक बाजी के मृत शरीर को रेलगाड़ी से कटक ले गए। सबसे कम उम्र में मातृभूमि की खातिर बलिदान देने वाले उस वीर की शव-यात्रा में हजारों लोग सम्मिलित हुए। एक लेखक ने उनके अंतिम संस्कार में सम्मिलित होने के पश्चात लिखा : ‘बंधु यह चिता नहीं है, यह देश का अंधेरा मिटाने की मुक्ति की मशाल है।’

लेखक-शोधार्थी, अवध विश्वविद्यालय, अयोध्या


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