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दिव्यांगों के लिए 'ज्योति' बन गई ज्योति

राहुल शुक्ला, कानपुर : 'गर्दिश में हों तारे, न घबराना प्यारे, गर तू हिम्मत न हारे तो होंगे व

By JagranEdited By: Published: Sun, 22 Oct 2017 12:52 AM (IST)Updated: Sun, 22 Oct 2017 12:52 AM (IST)
दिव्यांगों के लिए 'ज्योति' बन गई ज्योति
दिव्यांगों के लिए 'ज्योति' बन गई ज्योति

राहुल शुक्ला, कानपुर : 'गर्दिश में हों तारे, न घबराना प्यारे, गर तू हिम्मत न हारे तो होंगे वारे -न्यारे'। 1961 में बनी फिल्म 'रेशमी रुमाल' में दिवंगत पा‌र्श्व गायक मुकेश द्वारा गाया गया यह गीत अब भी प्रासंगिक है। कईयों को जीवन जीने की राह दिखा रहा है, कुछ को सफलता के द्वार तक पहुंचा रहा है। जी हां, जीवन में आशा की किरण जगाने वाला यह गीत बांदा की ज्योति गुप्ता पर हूबहू सटीक बैठता दिखता है। दिव्यांगों के लिए एक नई रोशनी बनीं ज्योति आज संबंधित संगठन का चेहरा भी बनती जा रही हैं। दिव्यांग बेटी का अंधकारमय भविष्य इन्हें रोजाना विचलित करता था, सोने नही देता था। लेकिन, मजबूत इरादे व दृढ़ इच्छा शक्ति के सहारे वे आज कईयों के लिए मिसाल बनती जा रही हैं। दिव्यागों की बेहतरी के लिए कार्य करने वाले एक संगठन में वे गुणवत्तापरक शिक्षा के साथ वे उन्हें रोजगारपरक शिक्षा भी प्रदान कर रही हैं। ज्योति अब बच्चों की क्राफ्ट आर्ट मैम भी बन गईं।

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बांदा निवासी ज्योति गुप्ता अपनी दिव्यांग बेटी प्राची के भविष्य को लेकर हमेशा चिंतित रहती थीं। उन्हें कहीं से पता चला कि दिव्यांग बच्चों को बेहतर भविष्य प्रदान करने के लिए कानपुर की संस्था 'दिव्यांग डेवलपमेंट सोसाइटी' कार्य करती है। यहां उनके चतुर्दिक विकास के काफी कुछ किया जाता है। बड़े उम्मीद के साथ वह अपनी बेटी को लेकर सोसाइटी की अध्यक्ष मनप्रीत से मिलीं। वहां उन्हें जीवन की नई रोशनी दिखी, कुछ करने का सुअवसर दिखा। संगठन की मुखिया ने उनके जज्बे को देखते हुए दिव्यांगों के लिए कुछ करने की नसीहत दी। अपनी सकारात्मक कार्यशैली व लगन से जहां वे दिव्यांग बच्चों की चहेती बन गई वहीं संगठन के संरक्षकों की भी प्रिय बनी हुई हैं। इस आशय ज्योति ने बताया कि उनकी चार बेटियों में दिव्यांग प्राची सबसे बड़ी है। जबकि पति बांदा में रहकर कारोबार करते हैं। यह भी कहा कि करीब दस माह पहले वह सबसे छोटी बेटी आर्शी को लेकर वह कानपुर आई व विजय नगर में किराए के मकान रहने लगीं। दिव्यांग बेटी प्राची को लेकर संत नगर में रोज पढ़ाने के लिए आती थीं। वहां उन्हें करीब छह घंटे बैठना पड़ता था। पहले अपनी बेटी को लेकर परेशान रहती थीं। इसी बीच वे कई दिव्यांग बच्चों से मिलीं। इसके बाद उनके साथ जीने के ललक बढ़ गई, उनकी भाषा को समझने लगीं। दिव्यांग डेवलपमेंट सोसाइटी की अध्यक्ष मनप्रीत से उन्होंने वहां कार्य करने की इच्छा जताई। ज्योति के लगन को देखते हुए संगठन की अध्यक्ष मनप्रीत ने अपने यहां कार्य करने की अनुमति दे दी। इसके बाद तो लगा कि जैसे ज्योति के पंखों को उड़ान मिल गई हो। दिव्यांग बच्चों के रोजमर्रा कार्यो के अलावा उन्हें वे अब मोमबत्ती ,लिफाफे व झोले बनाना सिखाती हैं। इसके अलावा हैंडीक्राफ्ट के कार्यो के बारे में नित नई जानकारी भी दे रही हैं। उनके द्वारा किए जा रहे कार्यो को संगठन के संरक्षक भी सराह रहे हैं। दिव्यांग बच्चों के साथ ज्यादा से ज्यादा समय गुजराने में ज्योति को सुखद अनुभूति होती है। जीने की राह जो उन्हें अब मिल गई है।


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