अंतिम स्टेज के कैंसर रोगियों की बढ़ा दी 'जीवन की रेखा', अन्य अस्पताल भी अपनाएंगे ये तकनीक Kanpur News
जेके कैंसर संस्थान की तकनीक को एसोसिएशन ऑफ रेडिएशन ऑनकोलॉजी इन इंडिया में प्रस्तुत किया गया है अब अन्य अस्पताल भी अपनाएंगे।
कानपुर, [शशांक शेखर भारद्वाज]। अंतिम स्टेज के ऐसे मुख के कैंसर रोगी जिनका ऑपरेशन संभव नहीं है। उनके इलाज में दुष्प्रभावों को कम करके 'जीवन की रेखा' बढ़ाने के प्रयास शुरू हो गए हैं। जेके कैंसर संस्थान के विशेषज्ञों ने डोज में परिवर्तन कर 'मौत की आहट' को रोक दिया है। संस्थान की तकनीक एसोसिएशन ऑफ रेडिएशन ऑनकोलॉजी इन इंडिया (एआरओआइ) में प्रस्तुत की गई, जिसे कई अस्पतालों में लागू करने की तैयारी है। यह तकनीक डॉ. एसएन प्रसाद, डॉ. जितेंद्र वर्मा, डॉ. प्रमोद, डॉ. धर्मराज, डॉ. मंगेश द्वारा 56 मरीजों पर किए गए शोध से विकसित हुई।
सात फीसद रोगियों की बची जान
मुख कैंसर रोगियों को छह सप्ताह तक कीमो लगा। उनकी चार सप्ताह तक प्रत्येक शनिवार को रेडियोथेरेपी हुई। रेडिएशन की मात्रा 400 सेंटीग्रे रखी। स्टैंडर्ड प्रोटोकाल में अंतिम स्टेज के मुख कैंसर रोगियों को 10 दिन तक रेडिएशन दिया जाता है, जिसकी मात्रा 300 सेंटीग्रे रहती है। रिस्पांस रेट दोनों में बराबर आया, लेकिन मरीजों में खून की कमी, चिड़चिड़ापन और बाल झडऩे की समस्या कम मिली। सात फीसद रोगी सही हो गए, जबकि 60 फीसद में संक्रमण फैलना रुक गया।
कीमो और रेडिएशन पर जांच
कीमो और रेडिएशन में क्या कारगर है और किसके इस्तेमाल से कम दिक्कत होती है। यह पता लगाने के लिए गॉल ब्लेडर के कैंसर रोगियों में कीमो और रेडिएशन की जांच की जा रही है। एक समूह को कीमो और दूसरे को रेडिएशन दिया जा रहा है।
टैबलेट से कम हुआ साइड इफेक्ट
जेके कैंसर संस्थान और मुरारी लाल चेस्ट हॉस्पिटल के विशेषज्ञ फेफड़े के कैंसर रोगियों पर काम कर रहे हैं। एक समूह को ओरल कीमोथेरेपी (टैबलेट) दी गईं। रोजाना एक टैबलेट खानी थी। दूसरे समूह की कीमोथेरेपी की छह साइकिल हुईं। टैबलेट के सेवन से साइड इफेक्ट कम मिला।
स्टैंडर्ड प्रोटोकॉल के मुताबिक दे रहे डोज
जेके कैंसर संस्थान के निदेशक डॉ. एमपी मिश्रा कहते हैं कि कैंसर रोगियों पर शोध जारी हैं। उन्हें कम से कम तकलीफ हो, इसके लिए स्टैंडर्ड प्रोटोकॉल के मुताबिक डोज दिया जा रहा है। संस्थान के डॉ. जितेंद्र वर्मा का कहना है कि मुख और फेफड़े के कैंसर रोगियों पर शोध के सकारात्मक परिणाम मिले। रेडिएशन की क्षमता परिवर्तन से मरीजों में दुष्प्रभाव कम हो गया।