पथ प्रदर्शक और पथगामी का प्रतिवाद, पढ़िए- कवि रबींद्रनाथ टैगोर के पत्र का शरतचंद्र का आक्रोश भरा जवाब
यदि हम अपनी ताकत पर नहीं बल्कि दूसरे की सहिष्णुता की बदौलत विदेशी राज्य के संबंध में यथेच्छ व्यवहार दिखाने का साहस दिखाते हैं तो वह पौरुष की विडंबना-मात्र है । राजबंदी जेल में दूध-मक्खन नहीं पाते ।
कानपुर, आरती तिवारी। बांग्ला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार एवं लघुकथाकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की जब्त किताब ‘पथेर दाबी’ पर अपना मत व्यक्त करते हुए कवि रबींद्रनाथ टैगोर का पत्र तथा उस पत्र के उत्तर में शरतचंद्र द्वारा कवि टैगोर को लिखा गया आक्रोश भरा पत्र...
कल्याणयेषु!
तुम्हारा ‘पथेर दाबी’ पढ़ लिया। पुस्तक उत्तेजक है, अर्थात् अंग्रेजी शासन के विरुद्ध पाठकों के मन को अप्रसन्न करती है। लेखक के कर्तव्य के हिसाब से वह दोष नहीं हो सकता। क्योंकि लेखक अंग्रेजी राज को खराब समझता है। वह चुप नहीं बैठ सकता, लेकिन चुप न बैठने पर जो विपदा पैदा हो सकती है, वह भी उसको स्वीकार करनी चाहिए। अंग्रेजी राज क्षमा कर देगा, इस अधिकार को लेकर हम उसकी निंदा करें, यह भी कोई पौरुष की बात नहीं है। मैं नाना देशों में घूम आया हूं और जो कुछ जान सका हूं, उससे यही देखा है कि एकमात्र अंग्रेजी राज को छोड़कर स्वदेशी या विदेशी प्रजा के मौखिक या व्यावहारिक विरोध को और कोई भी राज्य उतने धैर्य के साथ सहन नहीं करता।
यदि हम अपनी ताकत पर नहीं, बल्कि दूसरे की सहिष्णुता की बदौलत विदेशी राज्य के संबंध में यथेच्छ व्यवहार दिखाने का साहस दिखाते हैं तो वह पौरुष की विडंबना-मात्र है। उसमें अंग्रेजी शासन के प्रति ही श्रद्धा झलकती है न कि अपने प्रति। राजशक्ति में पशुबल है, यदि कर्तव्य के आधार पर उसके विरुद्ध खड़ा भी होना पड़े तो दूसरे पक्ष में चारित्रिक जोर यानी आघात सहने का जोर होना आवश्यक है। पर हम अंग्रेजी शासन से उस चारित्रिक जोर की मांग करते हैं, अपने से नहीं। उससे प्रमाणित होता है कि हम मुंह से चाहे जो भी कहें पर अपने अनजान में हम अंग्रेजों को गालियां देकर हम उनसे सजा की आशंका नहीं करते। शक्तिमान की दृष्टि से देखा जाए तो तुम्हें कुछ न कहकर सिर्फ तुम्हारी पुस्तक को जब्त कर लेना लगभग क्षमा करना है। कोई भी प्राच्य या पाश्चात्य विदेशी शासन ऐसा न करता। हम भारतीयों के हाथों में राजशक्ति होती तो हम क्या करते, इसका अनुमान हम अपने जमींदारों और भारतीय रजवाड़ों के व्यवहार से लगा सकते हैं।
पर इसीलिए लेखनी बंद थोड़े ही करनी है। मैं भी यह नहीं कहता। मैं कह रहा हूं कि सजा स्वीकार करके ही लेखनी चलानी पड़ेगी। जिस किसी देश में राजशक्ति के साथ विरोध हुआ है, वहां ऐसा ही हुआ है। राजशक्ति का विरोध करते हुए आराम से नहीं रहा जा सकता। इस बात को असंदिग्ध रूप से जानकर ही ऐसा करना है। क्योंकि यदि तुम पत्रों में उनके राज्य के विरुद्ध लिखते तो उसका प्रभाव बहुत थोड़ा व बहुत कम समय के लिए होता। किंतु तुम्हारे समान लेखक गल्प के रूप में ऐसी कथा लिखे तो उसका प्रभाव सदा ही होता रहेगा। देश और काल दोनों की ही दृष्टि से उसके प्रचार की कोई सीमा नहीं हो सकती। कच्ची उम्र के बालक-बालिकाओं से लेकर बूढ़ों तक पर उसका प्रभाव होगा। ऐसी अवस्था में अंग्रेजी राज्य यदि तुम्हारी पुस्तक का प्रचार बंद न करे तो उससे यही समझा जा सकता है कि साहित्य में तुम्हारी शक्ति और देश में तुम्हारी प्रतिष्ठा के संबंध में उसे कोई ज्ञान नहीं है। शक्ति पर जब आघात किया है, तो प्रतिघात सहने के लिए तैयार रहना ही होगा। इसी कारण से उस आघात का मूल्य है। आघात की गुरुता को लेकर विलाप करने से उस आघात के मूल्य को एक बार ही मिट्टी कर देना होगा!
इति।
तुम्हारा,
रबींद्रनाथ टैगोर
27 माघ, 1333 (10 फरवरी, 1927 ई.)
पत्र के उत्तर में शरतचंद्र द्वारा कवि टैगोर को लिखा गया आक्रोश भरा पत्र...
श्रीचरणेषु,
आपका पत्र पाया। यह पुस्तक मेरी लिखी हुई है, इसलिए दुख तो मुझे है, पर कोई खास बात नहीं। आपने जो कर्तव्य और उचित समझा, उसके विरुद्ध न तो मेरा कोई अभिमत है और न कोई अभियोग, पर आपकी चिट्ठी में जो दूसरी बातें आ गई हैं, उस अभिमत में मेरे मन में दो-एक प्रश्न हैं और कुछ वक्तव्य भी हैं। यदि तुर्की-ब-तुर्की लगे तो वह भी आपकी ही शराफत के कारण समझिए। आपने लिखा है, ‘अंग्रेजी राज्य के प्रति पाठकों का मन अप्रसन्न हो उठा है।’ होने की बात थी, किंतु यदि मैंने ऐसा किसी असत्य प्रचार के द्वारा करने की चेष्टा की होती तो लेखक के रूप में उससे मुझे लज्जा और अपराध दोनों ही महसूस होते। किंतु जान-बूझकर मैंने ऐसा नहीं किया। यदि ऐसा करता तो वह राजनीतिज्ञों का धंधा होता, कृति न होती। नाना कारणों से बांग्ला में इस तरह की पुस्तक किसी ने नहीं लिखी। मैंने जब लिखी है और उसे छपवाया है तो सब परिणाम जानकर ही किया है।
जब बहुत मामूली कारणों से भारत में सर्वत्र लोगों को बिना मुकदमे के अन्यायपूर्वक या न्याय का दिखावा करके कैद और निर्वासित किया जा रहा है तो मुझे छुट्टी मिलेगी यानी राजपुरुष मुझे क्षमा करेंगे, यह दुराशा मेरे मन में नहीं थी, आज भी नहीं है। किंतु बंगाल के लेखक के हिसाब से पुस्तक में यदि मिथ्या का आश्रय नहीं लिया है एवं उसके कारण ही यदि राजरोष भोग करना होगा तो करना ही होगा। चाहे वह मुंह लटकाकर किया जाए या रोकर किया जाए। किंतु क्या इससे प्रतिवाद करने का प्रयोजन खत्म हो जाता है?
राजबंदी जेल में दूध-मक्खन नहीं पाते। चिट्ठी लिखकर पत्रों में शोर करने में मुझे लज्जा आती है, किंतु मोटे चावल के बदले में जेल के अधिकारी यदि घास का प्रबंध करते हैं, तब हो सकता है लाठी की चोट से उसे चबा सकूं, किंतु जब तक घास के कारण गला बंद नहीं हो जाता, तब तक उसे अन्याय कहकर प्रतिवाद करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूं।
किंतु पुस्तक मेरे अकेले की ही लिखी हुई है, इसलिए मेरा अकेले का ही दायित्व है, जो कुछ कहना मैंने उचित समझा, वह कहा या नहीं, असली बात तो यही है। अंग्रेजी राज्य की क्षमाशीलता के प्रति मेरी कोई निर्भरता नहीं है। मेरी सारी साहित्य-सेवा इसी प्रकार की है। जो मैं ठीक समझता हूं, वही लिखता हूं।
मेरा प्रश्न यह है कि अंग्रेजी राज्यशक्ति द्वारा उस पुस्तक को जब्त करने का औचित्य यदि है तो पराधीन भारतवासियों द्वारा प्रतिवाद करने का भी वैसा ही औचित्य है। मेरे प्रति आपने यही अविचार किया है कि मैं दंड के भय से प्रतिवाद करना चाहता हूं और उस प्रतिवाद के पीछे ही अपने को बचाना चाहता हूं किंतु वह वास्तविकता नहीं है। देशवासी यदि प्रतिवाद नहीं करते तो मुझे करना होगा, लेकिन वह सब शोर मचाकर नहीं करूंगा, एक और पुस्तक लिखकर करूंगा।
आप यदि केवल मुझे यह आदेश देते कि इस पुस्तक का प्रचार करने से देश का सचमुच अमंगल होगा तो मुझे सांत्वना मिलती। मनुष्य से भूल होती है। सोच लेता कि मुझसे भी भूल हुई है। मैंने किसी रूप में विरुद्ध भाव लेकर आपको यह पत्र नहीं लिखा। जो मन में आया आपको स्पष्ट रूप से लिख दिया। मैं सचमुच रास्ता खोजता हुआ घूम रहा हूं, इसलिए सब कुछ छोड़-छाड़कर निर्वासित हो गया हूं। इसमें कितना पैसा, शक्ति, समय बर्बाद हुआ वह किसी को बताने से क्या?
आपके अनेक भक्तों में मैं भी एक हूं, इसलिए बातचीत से या आचरण से आपको तनिक भी कष्ट पहुंचाने की बात मैं सोच भी नहीं सकता।
इति।
सेवक,
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
2 फाल्गुन, 1333 (14 फरवरी, 1927 ई.)