ये उन दिनों की बात है..
कानपुर में गद्य लेखन के स्वर्णकाल की कथा बड़ी रोचक है। यहां की धरती ने कई साहित्यकारों की कर्मभूमि रही। यहां के साहित्यक इतिहास को साझा कर रहें वरिष्ठ कथाकार राजेंद्र राव
जागरण संवाददाता, कानपुर : इस नगर को सुरम्य और रमणीक बनाकर रखने वाली भागीरथी के समानांतर, वाल्मीकि रामायण के युग से काव्य गंगा अक्षुण्ण बहती रही है। उपन्यास सम्राट प्रेमचंद, विशंभर नाथ शर्मा कौशिक, भगवती प्रसाद बाजपेयी, प्रताप नारायण श्रीवास्तव आदि ने कथा जगत से कानपुर को जोड़े रखा। मगर, गद्य विधाओं का स्वर्णकाल रहा पिछली सदी के सातवें और आठवें दशक के दौरान। जब इलाहाबाद से गिरिराज किशोर और लखनऊ से कामतानाथ आकर यहां बसे। इन्होंने अपने विपुल रचनात्मक अवदान से पूरे ¨हदी जगत में धूम मचा दी। उनके बाद प्रकाश बाथम, सुमति अय्यर, प्रियंवद, श्रीनाथ, सुनील कौशिश, उद भ्रांत, अमरीक सिंह दीप, कृष्ण बिहारी आदि कथाकारों ने जैसे कानपुर को ¨हदी कथा का एक मुख्य केंद्र बना दिया। संतोष तिवारी, बलराम, प्रेम गुप्ता मानी जैसी नई प्रतिभाएं लगातार सामने आती रहीं। उन दिनों कथा साहित्य की प्रमुख पत्रिकाओं में लगभग हर अंक में कानपुर के कथाकारों की रचना होती थी। आलोचना के क्षेत्र में हृषिकेश, ललित मोहन अवस्थी, अंबिका सिंह वर्मा सक्रिय थे तो अपराध कथाओं में रमेश खुराना, स्वप्न, श्याम नंदन वर्मा आदि अनेक लेखक एक अलग धारा बहा रहे थे। नरेशचंद चतुर्वेदी कानपुर के साहित्य का इतिहास लिख रहे थे और गिरिराज किशोर के साथ मिलकर 'निरंतर' जैसी साहित्यिक पत्रिका यहां से प्रकाशित की। नाट्य लेखन में ज्ञानदेव अग्निहोत्री और सुशील कुमार सिंह को राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हुई। प्रगतिशील लेखक संघ का ऐतिहासिक कथाकार सम्मेलन यहां हुआ। उन दिनों रिजर्व बैंक के सामने 'दोस्तों की दुकान', फूलबाग के पास बंगाल स्वीट हाउस, क्वालिटी रेस्टोरेंट आदि लेखकों के अड्डे थे, जो हमेशा गुलजार रहते थे। बाहर से कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी, राजेंद्र यादव, शैलेष मटियानी, उपेंद्र नाथ अश्क, नरेश मेहता और रमेश बक्शी जैसी हस्तियां यहां आती थीं और कानपुर के लेखकों से उनके आत्मीय संबंध दृष्टिगोचर होते थे। कथा गोष्ठियां तो नियमित रूप से हुआ करती थीं, जिनमें युवा, नवोदित लेखक अपनी रचनाएं पढ़ते थे।