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1967 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए कानपुर से ठोंकी थी ताल, ऐन वक्त पर काटा टिकट

साहित्य सत्ता की ऊंची आसंदी पर काबिज रहे गोपाल दास नीरज पूरी तरह सियासत से भी अछूते न रह सके। 1967 लोकसभा चुनाव में ताल ठोंकी थी ।

By Nawal MishraEdited By: Published: Thu, 19 Jul 2018 11:49 PM (IST)Updated: Fri, 20 Jul 2018 08:25 AM (IST)
1967 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए कानपुर से ठोंकी थी ताल, ऐन वक्त पर काटा टिकट
1967 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए कानपुर से ठोंकी थी ताल, ऐन वक्त पर काटा टिकट

कानपुर (जेएनएन)। साहित्य सत्ता की ऊंची आसंदी पर काबिज रहे महाकवि गोपाल दास नीरज पूरी तरह सियासत से भी अछूते न रह सके। कलम चलाने के साथ आजीविका के लिए संघर्ष कर रहे नीरज ने कानपुर से राजनीति में भी हाथ आजमाया था। इसे साहित्य जगत का सौभाग्य ही माना जाए कि कुछ ऐसा घटा कि वह उचाट मन से फिर पावन शब्द साधना की राह पर ही लौट पड़े। महान गीतकार गोपाल दास नीरज जब डीएवी कॉलेज में क्लर्क की नौकरी कर रहे थे, तभी उनकी अच्छी मंडली कानपुर में बन चुकी थी। वह खूब गीत-कविताएं लिखने लगे थे।

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कांग्रेस ने किया था टिकट देने का वादा

1967 में लोकसभा चुनाव का बिगुल बजने से पहले एक बार नीरज अपने नवाबगंज निवासी कवि मित्र विवेक श्रीवास्तव से मिलने गए। वहां से कुछ मित्रों के साथ घूमने के लिए बिठूर चले गए। वहां राजनीतिक चर्चा हुई तो दोस्तों ने ही नीरज से कहा कि आपको राजनीति में आना चाहिए। पहले नीरज ने मना किया लेकिन फिर मान गए। मगर, शर्त रख दी कि चुनाव लड़ेंगे अपने अंदाज में। नीरज ने लोकसभा चुनाव 1967 का चुनाव लडऩे के रजामंदी दे दी। कांग्रेस ने उन्हें टिकट देने का वादा किया। वह तैयारी में जुट गए, लेकिन ऐन वक्त पर कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया तो वह उन्होंने निर्दलीय पर्चा भर दिया। नीरज की जीवनी से जुड़ी किताबों में जिक्र है कि वह सभाओं में गीत और भाषण के इस्तेमाल से सभी को रिझाते थे। साथ ही यह भी हुंकार भरते थे कि  भ्रष्ट और अपराधी मुझे वोट न दें। हालांकि राजनीतिक परिस्थितियां ऐसी बनीं कि पर्याप्त लोकप्रियता के बावजूद वह चुनाव हार गए थे। 

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कानपुर आज जो देखे तू अपने बेटे को,

अपने नीरज की जगह लाश उसकी पाएगा, 

सस्ता कुछ इतना यहां मैने खुद को बेचा है,

मुझको मुफलिस भी खरीदे तो सहम जाएगा।

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मिला दर्द तो बने महाकवि

कानपुर की पाती में लिखी गोपाल दास नीरज की इन पंक्तियों में दर्द के सिवाय कुछ नहीं है। उनके बेहद करीबी रहे शिक्षाविद डॉ. प्रदीप दीक्षित बताते हैं कि जब दर्द मिला तो कविता शुरू हुई और कानपुर ने गोपाल दास को नीरज बना दिया। कानपुर से दर्द मिला और दर्द के साथ प्रेम की जुगलबंदी ने कवि को महाकवि बना दिया। उन्होंने रूबाई को अपनाया जिसके चलते उनके गीतों की काव्य शैली अन्य कवियों से अलग थी। उन्हे गीतों का कुंवर कहा जाता था। 

मृत्युगीत लिखा तो बीमार हो गए नीरज

उस वक्त माना जाता था कि जो कवि अपना मृत्यु गीत लिखता है वह जीवित नहीं रहता। प्रदीप बताते हैं कि उनकी प्रतिभा विलक्षण थी। 40 वर्ष पहले उन्होंने अलीगढ़ में मृत्यु गीत लिखा और बीमार हो गए। अलीगढ़ के अस्पताल में ही उन्होंने जीवन गीत लिखा जिसके बाद उनका स्वास्थ्य ठीक हुआ। 

अर्द्धनारीश्वर कहा तो चिढ़ गए 

उस वृतांत को प्रदीप भूले नहीं भूलते। उन्होंने नीरज जी को अर्द्धनारीश्वर कहा तो वह काफी चिढ़ गए। जब उन्हे बताया कि आपमें पुरुष का पुरुषत्व तो है ही एक स्त्री की कोमलता भी है। काफी सोचने के बाद वह सहमत हुए और हां कहा। 1994 में दैनिक जागरण में दिए एक साक्षात्कार में इस वृतांत का जिक्र उन्होंने किया था। 

मट्ठे के आलू और बासी पूड़ी थी पसंद

भरथना स्थित प्रदीप के घर पर नीरज अक्सर रुकते थे। उन्हें मट्ठे के आलू और बासी पूड़ी बहुत पसंद थी। वह जब भी घर पहुंचते थे, रात में ही पूड़ी बनाकर रख दी जाती थी। उनकी फरमाइश पर घर में खाना बनता था। अरहर की दाल भी उन्हे बहुत पसंद थी। 

विलक्षण थी क्षमता

आजाद नगर में 2008 में पुस्तक मेले का आयोजन किया गया था। इसमें उन्हें ही अकेले काव्य पाठ करना था। नीरज जी ने तीन घंटे लगातार काव्य पाठ किया। --

नागरिक अभिनंदन का मलाल रह गया

पालकी कवि की उठाना तुझे जब आ जाए,

मुझको लिखना मैं तुझे दौड़ के मिल जाऊंगा।---

पाती में नीरज जी की इन पंक्तियों को पढ़कर ख्याल आया कि उनका नागरिक अभिनंदन करूं। पूरी योजना बना ली गई। स्टॉक एक्सचेंज से पालकी में उन्हे शहर के बुद्धिजीवी और साहित्यकार कंधों पर उठाकर मर्चेंट चेंबर ले जाते। ढोल ताशों के बीच उनका प्रवेश द्वार पर अभिनंदन किया जाता। उन्हें जब यह बताया तो वह राजी भी हो गए। तारीख तय की तो वह अस्वस्थ हो गए। इसके बाद कभी संयोग नहीं बन सका जबकि कई बार उन्होंने मुझसे पूछा भी, आपकी पालकी का क्या हुआ। नीरज जी के जाने के बाद अब यह मलाल जीवन भर सालता रहेगा।


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