कानपुर डीएवी कॉलेज में अपने ही पिता के सहपाठी थे अटल बिहारी वाजपेयी
1948 में जब अटल जी ने डीएवी कॉलेज में एलएलबी के लिए दाखिला लिया तो उनके पिता कृष्णबिहारी लाल वाजपेयी ने भी एलएलबी करने का फैसला कर लिया।
कानपुर (जितेंद्र शर्मा )। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जिंदगी का यह भी एक रोचक किस्सा है। 1948 में जब अटल जी ने डीएवी कॉलेज में एलएलबी के लिए दाखिला लिया तो सरकारी नौकरी से अवकाश प्राप्त उनके पिताजी पं.कृष्णबिहारी लाल वाजपेयी ने भी यहीं से एलएलबी करने का फैसला कर लिया।
छात्रावास में पिता-पुत्र एक ही कक्ष में रहते थे। विद्यार्थियों की भीड़ उन्हें देखने आती थी। दोनों एक ही कक्षा में बैठते थे। कभी पिताजी देर से पहुंचते तो प्रोफेसर ठहाकों के साथ पूछते- कहिए आपके पिताजी कहां गायब हैं? और कभी अटल जी को देर हो जाती तो पिताजी से पूछा जाता-आपके साहबजादे कहां नदारद हैं? इस असहज स्थिति से बचने के लिए बाद में दोनों ने सेक्शन बदलवा लिया था। हालांकि यहां से अटल जी एलएलबी की पढ़ाई पूरी नहीं कर सके। जनसंघ ने राजनीतिक दायित्वों के लिए उन्हें लखनऊ बुला लिया था।
डीएवी हॉस्टल में मनाया था आजादी का जश्न
1947 में देश की आजादी का जश्न 15 अगस्त को डीएवी छात्रावास में मनाया गया था। तब अटल जी ने 'अधूरी आजादी' का दर्द उकेरते हुए कविता सुनाई थी। समारोह में शामिल आगरा विवि के पूर्व उपकुलपति लाला दीवानचंद ने उन्हें दस रुपये इनाम दिया था। यह उनके साहित्य सृजन का शुरुआती दौर माना जा सकता है।
डीएवी कॉलेज की धरोहर बने संस्मरण
भारत रत्न, पद्म विभूषण अटल बिहारी वाजपेयी के संघर्ष और सफलता की गाथा कानपुर का डीएवी कॉलेज पूरे मन से सुनाता है। इस कॉलेज की पुरानी इमारत में उनके संघर्षों के गीत आज भी गूंजते हैं। उस दौर के उनके साथी बेशक जुबानी सुनाने को उपलब्ध न हों लेकिन, अटल जी से जुड़े रोचक संस्मरण ही इस संस्थान के लिए धरोहर बन गए हैं। डीएवी कॉलेज के पूर्व प्राचार्य प्रो. एलएन वर्मा के मुताबिक अटल ने 1945-46, 1946-47 के सत्रों में यहां से राजनीति शास्त्र में एमए किया। पूर्व प्राचार्य एक पत्र सहेजे रखे हैं, जो प्रधानमंत्री रहते हुए अटल जी ने लिखा था। वह पत्र साहित्यसेवी बद्रीनारायण तिवारी ने संस्थान को सौंप दिया। उस पत्र में कुछ रोचक और गौरवान्वित कर देने वाली घटनाओं का जिक्र है।
पिता के साथ ट्यूशन पढ़ाकर चलाते खर्च
प्रतिभा, संघर्ष और सफलता... अटल जी की शख्सियत इन तीनों तत्वों से मिलकर बनी। वह जिस तरह आगे बढ़े, उसे देखकर शायद ही कोई सहज अंदाजा न लगा सके कि उन्होंने मुफलिसी का ऐसा घना अंधेरा भी देखा होगा। उन्होंने ग्वालियर में पढ़ाई सिंधिया घराने से मिली छात्रवृत्ति से की तो कानपुर आकर अपने पिताजी के साथ हटिया में ट्यूशन पढ़ाकर खर्च निकाला। डीएवी कॉलेज में संरक्षित अटल जी के पत्र में यह जिक्र भी है कि ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज से स्नातक करने के बाद वह चिंता में थे। घर की माली हालत ठीक नहीं थी। भविष्य अंधकार में नजर आ रहा था। तब ग्वालियर रियासत के तत्कालीन महाराज जीवाजी राव सिंधिया ने 75 रुपये प्रतिमाह की छात्रवृत्ति दी, जिससे अटल जी ने पढ़ाई की। यही नहीं, कानपुर में पढ़ाई के दौरान 1948 में खर्च चलाने के लिए पिता-पुत्र हटिया स्थित सीएबी स्कूल में ट्यूशन पढ़ाने जाते थे। अटल जी भूगोल पढ़ाते थे और उनके पिता कृष्णबिहारी वाजपेयी अंग्रेजी का ट्यूशन देते थे।
जब न्योता मिला, चले आए कानपुर
'हार नहीं मानूंगा' का अर्थसार उनके संघर्ष बयां करता है और 'रार नहीं ठानूंगा' की सोच से सर्वमान्य बनने का ये उनका तरीका था। साहित्यसेवी बद्रीनारायण तिवारी ने कानपुर में थोड़े-थोड़े अंतराल पर महाकवि भूषण, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त और लोकमान्य तिलक की मूर्तियां लगवाईं। उन्होंने अटल जी को आमंत्रित किया तो दलभेद न मानते हुए वह तीनों बार कानपुर आए और मूर्तियों का अनावरण किया। इससे यह भी संदेश मिलता है कि कानपुर के प्रति उनके दिल में क्या स्थान था। यहां का आमंत्रण मिलने पर वह आने का मन तुरंत बना ही लेते थे।
बच्चों संग घुल-मिल जाते
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के भतीजे नवीन वाजपेयी परिवार सहित ग्वालियर रहते हैं। उनकी बेटी यानी अटल जी की पौत्री नंदिनी मिश्रा की ससुराल कानपुर स्थित पांडुनगर में है। संस्मरण याद करते हुए उन्होंने बताया कि दो बार बाबा (अटल जी) कानपुर आगमन पर मेरी ससुराल भी आए। वह यही कहकर जाते थे कि दिल्ली आते रहा करो। वह तुम्हारा ही घर है। मेरी शादी 2003 में हुई थी। मैंने नई बहू होने की दलील दी तो उन्होंने प्रोत्साहित किया और कहा कि हां, परिवार की जिम्मेदारी इसी भाव से निभाना। नंदिता बताती हैं कि बाबा परिवार से बहुत घुल-मिलकर रहते थे। वह विदेश मंत्री थे, तब भी ग्वालियर व्यापार मेले का उद्घाटन करने पहुंचते थे। पूरे परिवार को साथ लेकर जाते थे। वह चाट-पकौड़ी खाने के साथ ही घर के बच्चों के साथ झूला भी झूलते थे। झूला झूलना उन्हें बहुत पसंद था। नंदिता बताती हैं कि जब वह पूरी तरह स्वस्थ थे, तब फोन पर अक्सर बात हो जाती थी। मैं मायके (ग्वालियर) जाती थी तो बाबा को फोन कर पूछ लेती थी, आपके लिए ग्वालियर की गजक तो नहीं लानी। वह खुश हो जाते थे और हमेशा मंगाते थे। उन्हें ग्वालियर की गजक बहुत पसंद थी। इसके अलावा घर आने पर उनके लिए उनकी पसंदीदा कढ़ी, करेला, दही बड़ा, मंगौड़ा बनाए जाते थे।