दोस्ती के अस्पताल में पैसे खत्म होने पर नहीं रुकता मरीज का इलाज
तीन डॉक्टर दोस्तों ने पढ़ाई के समय लिया संकल्प अब पूरा किया। बच्चों की सलामती के लिए चैरिटेबल अस्पताल बनाकर करते हैं इलाज।दूसरे डॉक्टरों के लिए नजीर है।
कानपुर (जागरण संवाददाता)। तीन दोस्त, एक की उम्र 78 साल, दूसरे की 72 और तीसरे की 68, दोस्ती 35 साल से, तीनों का मकसद सिर्फ एक, बच्चों की सलामती। जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी की पढ़ाई किए तीनों एक दूसरे के सीनियर हैं, लेकिन विचार समान हैं इसलिए तीनों की आपस में खूब बनती थी। पढ़ाई पूरी करने के बाद निर्धन और जरूरतमंद बच्चों के लिए कुछ करने का संकल्प लिया, जो अब जाकर साकार कर सके हैं।
दोस्ती की मिसाल, बनाया सपनों का अस्पताल
शहर के वरिष्ठ बालरोग विशेषज्ञ डॉ. एमएम मैथानी, डॉ.जेके कोहली और डॉ. आरएन चौरसिया की दोस्ती इसी इरादे के साथ शुरू हुई थी कि वह एक ऐसा अस्पताल बनाएंगे, जो नो प्रॉफिट नो लॉस पर काम करेगा और वर्ष 2004 में चैरिटेबल ट्रस्ट के रूप में अस्पताल शुरू कर दिया। महंगे इलाज को लेकर आज जहां डॉक्टरों पर लूटने का आरोप लगता है, वहीं दोस्ती का अस्पताल दूसरे डॉक्टरों के लिए नजीर है। स्थापना के 15 साल बाद भी ओपीडी पंजीकरण 100 रुपये है जो वर्ष 2021 तक के लिए फिक्स है, जबकि इनडोर में पंजीकरण के 300 रुपये लगते हैं। अस्पताल में भर्ती मरीज का पैसा खत्म हो जाए तो भी इलाज अनवरत चलता रहता है। इससे इतर, दोस्ती का मान तीनों ने निजी प्रैक्टिस में भी रखा है, प्रत्येक दस साल के लिए अपनी फीस फिक्स करते हैं।
जब डॉ. चौरसिया के हिस्से में आई घंटाघर वाली बिल्डिंग
डॉक्टरी की पढ़ाई के बाद तीनों दोस्तों की माली हालत ऐसी नहीं थी इसलिए अपने-अपने काम में लग गए। इनमें डॉ. चौरसिया ने अपने पिता मोहन लाल चौरसिया को संकल्प से अवगत कराया। वह सहमत हुए, लेकिन पैसे के इंतजाम पर चुप रह गए। 22 अगस्त 2003 में डॉ. चौरसिया के पिता का निधन हो गया। डॉ. चौरसिया के हिस्से में घंटाघर वाली बिल्डिंग आई। फिर क्या था वह अपने दोनों साथियों संग देखे सपने को साकार करने में जुट गए। पिता की स्मृति में पहली पुण्यतिथि 22 अगस्त 2004 को डॉ. मैथानी और डॉ. कोहली की मदद से अस्पताल की स्थापना की।
...ताकि कोई बच्चा दम न तोड़े
तीनों डॉक्टर दोस्तों का उद्देश्य था कि इलाज के अभाव में कोई बच्चा दम न तोड़े। कम खर्च में बेहतर इलाज मिल सके। शुरुआत से वर्ष 2011 तक ओपीडी पंजीकरण शुल्क 50 रुपये ही था। अब उसे सौ रुपये किया गया लेकिन आज भी अस्पताल में सिर्फ दवाओं और कर्मचारियों का खर्च निकालने के लिए ही शुल्क लिया जाता है। डॉ. चौरसिया कहते हैं कि डॉक्टरों को अपनी कमाई से कुछ हिस्सा जरूरतमंदों के लिए निकालना चाहिए। दो-तीन डॉक्टर मिलकर नो प्रॉफिट नो लॉस पर हर मोहल्लों में अस्पताल चलाएं तो शिशु मृत्यु दर नियंत्रण में आ जाएगी।
यह सुविधाएं हैं उपलब्ध
-इनडोर और नवजात शिशु सघन चिकित्सा इकाई (एनआइसीयू)।
-ओपीडी और इमरजेंसी सेवा
-ओपीडी सुबह 10 से शाम चार बजे तक चलती है। इमरजेंसी सेवा शाम 4 बजे से दूसरे दिन सुबह 10 बजे तक।
-तीन हजार बच्चे ओपीडी में आते प्रतिमाह
-अस्पताल में ढाई सौ से तीन सौ बच्चों का भर्ती कर होता इलाज