कला-संस्कृति से राजनीति की दूरी, विपरीत परिस्थितियों में काम करने की मजबूरी Kanpur News
कला संस्कृति को प्रोत्साहन न दिए जाने से सामने नहीं आ पाती हैं प्रतिभाएं।
कानपुर, जेएनएन। शहर में कला व संस्कृति को लेकर क्या स्थिति है। इसके अलावा राजनीति व शहर के विकास की अंदरखाने क्या चल रहा है। रियल जर्नलिज्म के तहत इन सभी मुद्दों को जनता के सामने रख रहे हैं श्रीनारायण मिश्र अपने कॉलम गंगा तीरे में।
नीरस नेता, बेनूर शहर
जिस शहर में प्रताप नारायण मिश्र जैसे साहित्यकार, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे पत्रकार, गुलाबबाई जैसी नौटंकी की अदाकारा रहीं हों। जहां दर्पण जैसी नाट्य संस्था हो। उस शहर में कला, संस्कृति, साहित्य के लिए कोई स्थान ही नहीं है। शहर के कोने में बैठे कृशकाय कलाकार अभय द्विवेदी इससे इतने व्यथित हुए कि घर के दो कमरे जोड़कर कला दीर्घा बना डाली ताकि नवोदित चित्रकार यहां सीख सकें, प्रदर्शनी लगा सकें। काश! यह पीड़ा राजनेताओं को भी महसूस होती। कला के प्रति प्रेम होता तो जानते कि कला-संस्कृति ही शहर का नूर है। इन कलाकारों के लिए महंगे ऑडिटोरियम बुक कराना कितना मुश्किल है। कैसे पाई-पाई चंदा जुटाकर वह कार्यक्रम करते हैं। इतने संघर्ष के बाद वह कुछ बनते हैं तो कनपुरिया कहलाकर शहर का नाम रोशन करते हैं। मगर नेता इसे समझ नहीं समझेंगे, क्योंकि संस्कृति के पहरुए वोट बैंक नहीं होते और नेताजी हर काम इसी तराजू में तौलते हैं।
सात बरस, आठ अफसर
लघु उद्योगों को खड़ा करके स्वरोजगार पैदा करने के लिए केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक छटपटा रही है। नई-नई योजनाएं लाई जा रही हैं। उसमें संशोधन हो रहे हैं फिर भी गाड़ी पटरी पर नहीं दौड़ रही। दरअसल जो उद्योग निदेशालय ये काम करता है, वहां मुखिया की कुर्सी चार दिन की चांदनी है। सात बरसों में आठ अफसर बदल चुके हैं। उनके पास यूपीएफसी, स्पिनिंग मिल, यूपिका, यूपी हैंडलूम जैसे घाटे और विवादों से घिरे कई विभागों के भी चार्ज होते हैं। कई महीने मशक्कत के बाद जब नए अफसर सब कुछ समझकर काम करने की मुद्रा में आते हैं तो उनका तबादला हो जाता है। यही वजह है कि 'नया क्या हो रहा है?Ó के सवाल पर यहां के अधीनस्थ अफसर हंसकर कहते हैं कि नए तो हमारे साहब हैं। कुछ महीने सीखेंगे, फिर यहां से कहीं भेज दिए जाएंगे। बीते माह भी यही हो चुका है।
उफ! ये मेट्रो रफ्तार
कानपुर में मेट्रो आ रही है, यानि तेज रफ्तार जिंदगी का नया दौर शुरू होने वाला है। यह दौर मेट्रो के कर्मचारियों ने तो अपनी कार्यशैली से दिखाना शुरू कर दिया है। अरे! नहीं, यहां बात तेजी से मेट्रो के निर्माण कार्य की नहीं हो रही है। काम तो बेशक तेज गति से चल ही रहा है। असल में वाकया 20 जनवरी का है, जब मेट्रो टै्रक के लिए यू-गर्डर की ढलाई होनी थी। इसकी शुरुआत के लिए प्रबंध निदेशक कुमार केशव कानपुर आ रहे थे। आने का समय निश्चित नहीं था। लखनऊ से देरी से चलने के कारण वह उन्नाव भी नहीं पहुंचे थे कि उनकी तेज तर्रार जनसंपर्क टीम ने कार्यक्रम की विज्ञप्ति जारी कर दी। यही नहीं पौने चार बजे जारी विज्ञप्ति में लिखकर भेजा गया कि प्रबंध निदेशक ने शाम चार बजे पूजन कर ढलाई का काम शुरू करा दिया जबकि एमडी काफी देर बाद पहुंचे।
संस्कारी नेता को चवन्नी
संस्कारों वाली पार्टी भाजपा में एक क्षेत्रीय पदाधिकारी के 'संस्कार' से पार्टी के वरिष्ठजन दुखी हैं। खुद को 'खास' व अध्यक्ष का कृपापात्र जताना उनकी आदत है। इसके लिए वह दूसरे की उम्र, अनुभव और पद का लिहाज नहीं करते। क्षेत्रीय संगठन जिला संगठन से बड़ी इकाई है, सो 'साहब' को खुशफहमी है कि वह जिला पदाधिकारियों से वरिष्ठ हैं। उनकी ऐंठन वरिष्ठजनों को असहज कर चुकी है। यह वाकया कुछ समय पहले का है। एक मंत्रीजी शहर में वार्ता कर रहे थे। उनके बगल में भाजपा जिलाध्यक्ष बैठे थे। अचानक इन 'साहब' का बड़प्पन जगा। जिलाध्यक्ष के करीब गए। बोले, यहां मुझे बैठने के निर्देश हैं। जिलाध्यक्ष अचकचा गए, पेशेवर ढीठ नहीं थे सो शर्मिंदा हो चुपचाप कुर्सी छोड़ दी। ये देख नाराज कार्यकर्ताओं ने बाहें चढ़ाई। जिलाध्यक्ष ने उन्हें रोका, 'गाली देने वाले लड़के' को 'चवन्नी' देने वाली 'पंचतंत्र' की कथा सुनाई। बोले, 'मैंने तो इसे 'चवन्नी' दी है।'