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बच्ची डरी थी और मैं सोच में पड़ा था

कोर्ट में जब पहली बार आठ साल की मासूम बच्ची को देखा तो वह बहुत डरी सहमी थी। मामला बेहद संवदेनशील था इसलिए गवाही भी उसी दिन पूरी करानी थी। यह कैसे होगा, इसे लेकर मैं सोच में पड़ा था।

By JagranEdited By: Published: Tue, 19 Jun 2018 10:10 AM (IST)Updated: Tue, 19 Jun 2018 10:10 AM (IST)
बच्ची डरी थी और मैं सोच में पड़ा था
बच्ची डरी थी और मैं सोच में पड़ा था

जागरण संवाददाता, कानपुर : कोर्ट में जब पहली बार आठ साल की मासूम बच्ची को देखा तो वह बहुत डरी सहमी थी। मामला बेहद संवदेनशील था इसलिए गवाही भी उसी दिन पूरी करानी थी। यह कैसे होगा, इसे लेकर मैं सोच में पड़ा था। उस वक्त सुनवाई ओपेन कोर्ट में हुई यह बड़ी समस्या थी। शाम 7 बजे तक कोर्ट बैठी तो बच्ची की जिरह पूरी कराई जा सकी। पूर्व शासकीय अधिवक्ता और वर्तमान में एनआइए के अधिवक्ता कौशल किशोर शर्मा बताते हैं कि अपने मुवक्किल को बचाने के लिए बचाव पक्ष की भूमिका को देखकर वह हैरान थे। हालांकि तत्कालीन अपर सत्र न्यायाधीश चतुर्थ से बहुत सहयोग मिला। न्यायालय ने बचाव पक्ष के अधिकतर ऐसे प्रश्नों को जो उस बच्ची को परेशान कर रहे थे, सिरे से खारिज कर दिया। इससे पहले न्यायालय ने उसकी मानसिक स्थिति का आंकलन करने के लिए कई प्रश्न पूछे। जिसका जवाब भी उसने डरते-डरते ही दिया।

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यह था मामला

आठ साल की मासूम के साथ उसके पड़ोस में रहने वाले एक व्यक्ति ने दुष्कर्म किया। पुलिस की चार्जशीट दाखिल होने के बाद मामला एडीजे चतुर्थ में सुनवाई पर लगा। करीब चार साल की कानूनी लड़ाई के बाद आरोपी व्यक्ति को दोषी करार देते हुए न्यायालय ने दस वर्ष कैद की सजा सुनाई थी।

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यक्ष प्रश्न था पहला सवाल

अधिवक्ता बताते हैं चूंकि उनके कार्यकाल में बच्ची से दुष्कर्म का यह प्रथम मामला था इसलिए उनके लिए पहला प्रश्न ही यक्ष समान था। हालांकि सवाल पूछने से पहले उसे विश्वास में लेने में वक्त लगा। सवाल के जवाब में उसने जो कुछ बताया वह डराने वाला था।

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साक्ष्य न के बराबर थे

-पुलिस ने बच्ची का मेडिकल कराया जो पुरानी पद्धति फिंगर टेस्ट पर आधारित था

-शरीर की चोटों और निजी अंगों के घाव का कोई जिक्र नहीं था

-अंडर गारमेंट्स जांच के लिए एफएसएल नहीं भेजे गए थे

-बच्ची की स्वयं की और उसकी मां की गवाही पर पूरा मुकदमा टिका था

-मां चश्मदीद गवाह भी नहीं थी

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आईं कानूनी अड़चनें

-सबसे पहले बच्ची से ही गवाही दिलाना मुश्किल था

-वह डरी सहमी और हकलाती आवाज में उत्तर देती थी

-बचाव पक्ष के सवालों को समझना उसके लिए मुमकिन नहीं था

-दुष्कर्म के मायने उसे नहीं मालूम थे और हम बता भी नहीं सकते थे

-उसके साथ क्या हुआ था, कोर्ट को यह बताते हुए वह कई बार रोयी

-सुनवाई खुली अदालत में चल रही थी लिहाजा जो कोई कोर्ट में आता, उसे गौर से देखने लगता

-जिरह के दौरान वह पूरी तरह असहज थी। उसकी मनोदशा बयां नहीं की जा सकती

-जब भी वह तारीख पर वह आती, मां के आंचल में छिपी रहती थी

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महिला डाक्टर को भी आ रही थी शर्म

अधिवक्ता बताते हैं कि बाल शोषण में मेडिकल का बहुत महत्व होता है जो पूर्ण नहीं था। गवाही देने में महिला डाक्टर भी शरमा रही थी। उन्होंने फिंगर टेस्ट के बारे में तो बताया लेकिन चोटें क्यों नहीं लिखी का कोई जवाब नहीं दिया।

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सजा का आधार बनी सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग

अधिवक्ता श्री शर्मा बताते हैं कि दुष्कर्म मामले में सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग का हवाला न्यायालय में दिया जो सजा का मुख्य आधार बनी। रूलिंग के मुताबिक पीड़िता के बयान को इंजर्ड विटनेस (चुटहिल गवाह) का बयान माना जाएगा। पीड़िता की अकेली गवाही सजा के लिए पर्याप्त है।


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