प्राचीन कला से रूबरू कराती हैं इन मंदिरों की ईंटें, देखते ही बनती है इनकी शिल्पकला
कानपुर नगर में स्थित है कई प्राचीन पुरातात्विक मंदिर सभी की है कुछ न कुछ अलग पहचान।
कानपुर, [बृजेश दुबे]। क्रांति, कलम और कारोबार का शहर कानपुर कला का भी नगर है। उस कला का, जो मंदिरों के विकास की कहानी कहती है। उस कला का, जो यहां के मंदिरों में सिंधु घाटी सभ्यता की विकसित योजना का साकार दर्शन कराती है। उस कला का, जो भारत के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक को अपने आंचल में समेटने का गौरव कानपुर को दिलाती है। यह कला है, इष्टिका यानी ईंटों की कला। कानपुर में घाटमपुर तहसील के भीतरगांव ब्लाक से लेकर फतेहपुर के चौडगरा-बिंदकी और जहानाबाद के चतुष्कोण में पुरातात्विक समृद्धि को सहेजे हुए यह कला न केवल स्वर्णकाल में वास्तुकला के समृद्ध होने का प्रमाण देती है, बल्कि सल्तनत काल के पहले, तकनीक के विकास की गाथा भी कहती हैं। पूरे देश में ईंटों के मंदिर की यह कला केवल तीन जगह मिलती है, जिसमें सबसे प्राचीनतम संरचना कानपुर में है। यहां ऐसी 50-60 संरचनाएं हैं, जो इस कला के विकास की गाथा कहती हैं। इस कला के भग्नावशेष भी हैं और संरक्षण से निखरने के बाद गौरव रूप भी।
भीतरगांव
घाटमपुर तहसील के विकास खंड भीतरगांव में गुप्त काल में पांचवीं सदी का बना हुआ ईंटों का मंदिर है। हालांकि यहां मुख्य मूर्ति नहीं मिली है, लेकिन गुप्त राजाओं के वैष्णव होने और मंदिर की संरचना साम्य से माना जाता है कि यह विष्णु मंदिर रहा होगा। इस मंदिर में शिखर है। मुड़ी ईंट, तराशे गए मूर्ति फलक दीवारों पर हैं। यहां की ईंटों पर डिजाइन है, जिन्हें पकाकर बनाया गया है। यह भारत का प्राचीनतम ईंटों का मंदिर है। गुप्तकाल का यही मंदिर है, जहां टेराकोटा की मूर्तियां मिली हैं। भारत के अन्य मंदिरों में पत्थर की मूर्तियां हैं। यह भी दिलचस्प तथ्य है कि भारत में सुरक्षित मिलने वाले प्राचीन मंदिरों में दो ईंटों के मंदिर है। एक भीतरगांव और दूसरा छत्तीसगढ़ के सिरपुर का लक्ष्मी मंदिर।
बेहटा बुजुर्ग
यूं तो यह मंदिर मौसम की भविष्यवाणी करने वाले मंदिर के रूप में जाना जाता है और संरक्षण के कारण लोग इसे ईंटों का मंदिर नहीं मानते हैं लेकिन यह मंदिर पूरी तरह ईंटों से बना है। यह जगन्नाथ मंदिर है। पूर्व में यह मंदिर पत्थर से बना था लेकिन गिरने के बाद इसे ईंटों से बनाया गया। यहां मिली मूर्तियों का शिल्प उच्चकोटि का है, इसलिए इसे चंदेल काल का माना जाता है। यहां की मूर्तियां खजुराहो की मूर्तियों के समान शिल्पकला वाली हैं। गुंबद के आकार वाले इस मंदिर में विकसित शिखर है।
करचुलीपुर
यहां शिïव मंदिर है। इसका निर्माण काल ठीक-ठीक नहीं पता लेकिन इसे गुप्तोत्तर काल के बाद का माना जाता है। कुछ लोग इसे दसवीं शताब्दी का मानते हैं, हालांकि मंदिर के अंदर की मूर्तियां और स्तंभ देखकर लगता है कि इसका निर्माण काल 11-12वीं शताब्दी का है। करीब चार सौ साल पहले इस मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ था और प्लास्टर कर यह स्वरूप दिया गया।
बीहूपुर
यहां भी ईंटों का मंदिर है। ग्रामीण इसे फूलमती देवी का मंदिर कहते हैं। हालांकि यह नाम क्यों पड़ा, कोई नहीं जानता लेकिन इस मंदिर की दीवार पर देवी प्रतिमा है और ग्रामीण इसे देवी मंदिर ही मानते हैं। प्रतिमा को देखकर लगता है कि आठ सौ साल पुरानी संरचना है। यहां एक बड़ा टीला है, जिसकी खोदाई के लिए अनुमति मांगी गई है। टीले के आसपास 11-12वीं सदी के मंदिर व मूर्तियां मिली हैं, इसलिए वही समयकाल माना जाता है।
शम्भुआ
बिधनू के आगे शम्भुआ और रार में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में यह मंदिर स्थित है। इसकी कला चंदलेकाल के पतन के दौर की मिलती है। इसकी दीवारें भी अलंकृत ईंटों से बनी हैं। यह संरचना संरक्षित नहीं है और धीरे-धीरे समाप्त हो रही है।
नीबियाखेड़ा
नौरंगा के पास स्थित यह मंदिर पंचायतन शैली में निर्मित हैं। पंचायतन शैली में मुख्य मंदिर मध्य में और चार कोनों पर अलग-अलग छोटे मंदिर होते हैं। हालांकि यहां तीन कोनों पर मंदिर हैं लेकिन चौथा मंदिर कोने पर न होकर थोड़ा किनारे पर है। इसे 10-11वीं शताब्दी में निर्मित माना जाता है। यह मुख्यत: शिव मंदिर है। इसका आकार ऊपर की ओर अंडाकार हो जाता है। यहां भी अलंकृत ईंटें लगी हैं।
कुर्था
यहां ईंटों के दो मंदिर मिले हैं। इनका समय काल भी शेष मंदिरों के समान माना जाता है। इन मंदिरों में कोई मूर्ति नहीं मिली और अब इसके भग्नावशेष ही बचे हैं। हालांकि पुरातत्व विभाग ने इसे संरक्षित कर लिया है और इसे पुराने स्वरूप में लाए जाने की संभावना है।
पीसनहारी की मढिय़ा
घाटमपुर चौराहे के आगे हमीरपुर रोड पर घाटमपुर शहर में पड़ती है। देखने से यह मढिय़ा काफी पुरानी लगती है, लेकिन उतनी पुरानी नहीं, जितना इसके आसपास और मंदिर हैं। यह मंदिर इष्टिका कला के पतन के दौर का है। पहले के मंदिरों में बड़ी ईंटें लगी थीं लेकिन यहां छोटी साइज की ईंटें लगी हैं।
फतेहपुर तक जाती है यह कला
फतेहपुर में थिथौरा, तेंदुली, कोरारी और सिरहन में इष्टिका कला का वैभव देखने को मिलता है। यहां महीन डिजाइन वाली अलंकृत ईंटें लगी हैं, जो उस समय ईंट निर्माण में तकनीकी दक्षता दर्शाती हैं। कोरारी का मंदिर तो पीसा की मीनार की तरह झुका हुआ है।
ईंट के मंदिर का इतिहास
ब्रह्मïावर्त रिसर्च इंस्टीट्यूट के सदस्य और उप निदेशक युवा कल्याण अजय त्रिवेदी बताते हैं, पश्चिम बंगाल में आठवीं-नवीं शताब्दी से लेकर 16वीं सदी तक ईंट के मंदिर बनाए गए हैं। वहां ईंट के मंदिर परंपरा के रूप में बने। बंगाल में सोना टोपल, बांकुड़ा के बहुलरा में ईंट मंदिर पुरातात्विक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण हैं। कानपुर में यह कला विशेष रूप से बढ़ी। कानपुर से लेकर फतेहपुर तक, विशेषकर भीतरगांव से लगा हुआ क्षेत्र यानी जहानाबाद तक ईंटों के मंदिर की पूरी शृंखला है जो बताती है कि इस परंपरा का विकास कैसे हुआ।
मंदिरों के विकास का इतिहास है इष्टिका कला
अजय त्रिवेदी बताते हैं, मंदिर बनाने की परंपरा में पहले शिखर बनाने का प्रचलन नहीं था। इसका विकास बाद में हुआ। इसीलिए भीतरगांव मंदिर का शिखर सपाट दिखता है और आगे के काल में शिखर पतले होते जाते हैं।
तीन स्तरीय हैं ये मंदिर
ईंटों के ये मंदिर बिना किसी चिनाई के तैयार किए गए हैं। अजय त्रिवेदी बताते हैं कि पहले मंदिर की वास्तुकला तैयार होती थी। फिर स्थान पर लगने के अनुसार ईंटों की डिजाइन बनती थी। उसी अनुसार ईंट बनाकर उसे पकाया जाता था। वास्तुकला के हिसाब से महीन कारीगरी के विकास का दौर भी कह सकते हैं। ये ईंट बिना किसी मसाले के रखी गई हैं। ईंटों का स्ट्रक्चर रखकर मिïट्टी का लेप लगाया गया है और उस पर ईंटें चिपकाई गई हैं। इसके अलावा हर मंदिर की दीवार नाली युक्त है। इससे पानी नहीं रुकता है और कला पक्ष भी मजबूत दिखता है।
अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने की थी खोज
1875 में अलेक्जेंडर फ्लेमिंग रेलवे के सर्वेयर बने। इस दौरान उन्होंने भीतरगांव के मंदिर की खोज की थी और उसका पुरातात्विक महत्व बताया था।
सिंधु सभ्यता से शुरू होता है ईंटों का विकास
सभ्यता के विकास क्रम में ईंटों का पहला प्रयोग सिंधु घाटी सभ्यता में मिलता है. हालांकि तब इन ईंटों से मंदिर नहीं बल्कि मकान, नाली और सड़कों का निर्माण होता था। इनके साक्ष्य भी मिले हैं। मूर्ति पूजा शुरू होने के साक्ष्य गुप्त काल से मिलते हैं। तभी से ईंटों से बने मंदिर भी मिलते हैं, यानी गुप्तकाल से ही ईंटों के मंदिरों का निर्माण शुरू होता है। इन मंदिरों में पत्थर का भी इस्तेमाल किया जाता रहा है। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद भी यह परंपरा कानपुर परिक्षेत्र में जीवित रही यानी के यहां राजाओं ने ईंट कला के कलाकारों को संरक्षण दिया। सल्तनत काल में इन कलाकारों का संरक्षण बंद हो गया और ईंटों से मंदिर बनाया जाना भी बंद हो गया। इसके बाद ईंटों से केवल आवास, भवन आदि ही बनने के साक्ष्य मिलते हैं। 13वीं शताब्दी के बाद ईंट मंदिर के कोई साक्ष्य बेहद कम हैं।