मयूरपंख में ओशो की 21 वार्ताओं की ‘कृष्ण-स्मृति’, किताबघर में पढ़िए भारतमाता धरतीमाता की समीक्षा
डा. राममनोहर लोहिया के गैर-राजनीतिक निबंधों/लेखों से उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक सोच का पता लगता है इन्हीं संग्रहों में से ‘भारतमाता धरतीमाता’ है जिसमें भारतीय संस्कृति को देखने की समाजवादी दृष्टि मिलती है। नई पीढ़ी के लिए किसी ‘ज्ञान उत्सव’ में सम्मिलित होने जैसा है।
किताबघर : भारतीय संस्कृति को देखने की समाजवादी दृष्टि
भारतमाता धरतीमाता
डा. राममनोहर लोहिया
संपादक: ओंकार शरद
सांस्कृतिक चिंतन/निबंध
पहला संस्करण, 1982
पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2019
लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज
मूल्य: 150 रुपए
समीक्षा : यतीन्द्र मिश्र
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और भारत में समाजवादी आंदोलन के अग्रणी उन्नायकों में डा. राममनोहर लोहिया की ख्याति अप्रतिम है। समाजवादी विचारों के उग्र प्रचारक माने जाने वाले लोहिया जी की खासियत यह रही कि उन्हें गांधीवादी समाजवाद का प्रबल समर्थक माना जाता है। लोहिया जी का अधिकांश लेखन दरअसल उनके वे भाषण हैं, जिन्हें बाद में लेख का रूप दिया गया। स्वाधीनता की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर डा. राममनोहर लोहिया के ऐसे ढेरों गैर-राजनीतिक निबंधों/लेखों को याद करना प्रासंगिक है, जिसमें उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक सोच का पता लगता है। यह उनके व्यक्तित्व का लुभाने वाला पक्ष है कि एक राजनेता के रूप में समादृत होने और जीवनपर्यंत भारत के लोकतंत्र में समाजवाद की पैरवी करने वाले ऐसे नायक का सामाजिक चिंतन, सामासिक और सांस्कृतिक रहा है। उनके लेखों के अधिकांश संग्रहों में से ‘भारतमाता धरतीमाता’ का स्मरण और उसका आज के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन प्रासंगिक जान पड़ता है। इस संचयन का संपादन ओंकार शरद ने किया था। अपनी भूमिका में उन्होंने इस बात की पुष्टि की है कि संग्रह के लेख लोहिया जी के जीवनकाल में ही वर्ष 1950 से 1965 तक के कालखंड के हैं। इस किताब की विवेचना इसलिए भी सामयिक लगती है कि यह सिर्फ समाजवादियों के लिए ही नहीं, बल्कि भारतीय मनीषा, संस्कृति और परंपरा में आस्था रखने वाले उन तमाम भारतीय नागरिकों के लिए भी है, जिस पर एक चिंतक के रूप में डा. राममनोहर लोहिया ने विचार किया है।
संग्रह में कुछ बेहद चर्चित, लोकप्रिय और खूब पढ़े गए वे लेख सम्मिलित हैं, जिन्हें इनके प्रकाशन के बाद से आज तक बार-बार विद्वतजन उद्धरण के तौर पर प्रस्तुत करते रहे हैं। ‘रामायण’, ‘धर्म पर कुछ विचार’, ‘राम-कृष्ण-शिव’, ‘हिमालय’, ‘भारतीय जन की एकता’, ‘भारत की नदियां’, ‘तीर्थस्थल’, ‘भारतीय इतिहास लेखन’, ‘जातिप्रथा’, ‘बोली और कपड़ा’ तथा ‘भारतमाता धरतीमाता’ जैसे लेख नामोल्लेख भर से ही अधिकांश पाठकों के स्मरण में कौंध जाएंगे। लोहिया जी ने सांस्कृतिक रूप से भारत की सामाजिक संस्कृति पर विचार करते हुए कुछ मौलिक स्थापनाएं दीं। समाजवाद की यूरोपीय सीमाओं और आध्यात्मिकता की राष्ट्रीय सीमाओं को तोड़कर उन्होंने एक विश्व दृष्टि विकसित करने की पहल की।
उनका विश्वास था कि पश्चिमी विज्ञान और भारतीय अध्यात्म का वास्तविक व सच्चा मेल तभी हो सकता है, जब दोनों को इस प्रकार संशोधित किया जाए कि वे एक-दूसरे के पूरक बन जाएं। इस लिहाज से उनकी विचारधारा समन्वयवादी थी, जिसमें उनके भाषण और लेख इस बात की नुमाइंदगी करते हैं कि भारतीय जनमानस माक्र्सवाद या गांधीवाद का अंधानुकरण न करके इनके सिद्धांतों की अमूल्य बातों को सीखकर एक मध्यमार्ग विकसित करे। इस संग्रह के अधिकांश लेखों में डा. लोहिया एक तरह से ‘सत्यम शिवम सुंदरम्’ के प्राचीन आदर्श की संकल्पना को आधुनिक विश्व के समाजवाद, स्वतंत्रता और अहिंसा के तीन सूत्रीय आदर्श के रूप में रचना चाहते थे।
यह गौर करने वाली बात है कि ‘राम, कृष्ण, शिव’ जैसे लेख में उनकी इन तीनों चरित्रों के बारे में की गई दार्शनिक व्याख्याएं अद्भुत ढंग से भारतीयता का बहुलतावादी चेहरा उजागर करती है। वे लिखते हैं- ‘राम, कृष्ण, शिव भारत में पूर्णता के तीन महान स्वप्न हैं। सबका रास्ता अलग-अलग है। राम की पूर्णता मर्यादित व्यक्तित्व में है, कृष्ण की उन्मुक्त या संपूर्ण व्यक्तित्व में और शिव की असीमित व्यक्तित्व में, लेकिन हर एक पूर्ण है।’ लेख का समापन करते हुए उनके विचार को एक भारतीय की दृष्टि से पढ़ना चाहिए- ‘ऐ भारतमाता, हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय दो तथा राम का कर्म और वचन दो। हमें असीम मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ-साथ जीवन की मर्यादा से रचो।’
लोहिया जी की दृष्टि में समग्रता और समावेशिता का स्थान प्रमुख रहा है। उन्होंने अपने भाषणों में इस बात का खास ध्यान रखा कि जब वे भारतीय जनमानस से मुखातिब हैं, तब उनके विचार भारत की अखंड समावेशी छवि के तहत ही प्रक्षेपित हों, जिसमें हमारे धर्म की उदार व्याख्या हो सके, समाज में पारस्परिकता का उदय हो, अध्यात्म, धर्म, दर्शन की पुस्तकों से लाभान्वित होकर समाज ज्ञानवान बने और करुणा से भरा हृदय धारण करे, साथ ही देश की भौगोलिक सीमाओं का दर्शन-पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक समन्वयकारी ढंग से स्वीकारा जाए। वे निश्चित ही पिछली शताब्दी में भारतीय संस्कृति के सबसे आधुनिक व्याख्याताओं में रहे हैं, जिनकी भाषा की सहजता में एक अनूठा सूफीयाना रंग घुला हुआ था।
उन्होंने अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए जिन विषयों को आधार बनाया, उनकी व्याख्या एक ही समय में परंपरा और वर्तमान के दो सीमांतों को व्यावहारिक ढंग से जोड़ती थी। वे रामायण पर भाष्य कर रहे हों या हिमालय की चर्चा, भारत की नदियों के बहाने उनके सफाई करने के आंदोलन की बात, सब जगह लोहिया जी का मुखर समाजवाद, बौद्धिकता के साथ बिना किसी दूसरे विचार को क्षति पहुंचाए गंभीरता से सुना जाता था। लोहिया जी के लेखों के इस संकलन को पढ़ना, नई पीढ़ी के लिए किसी ‘ज्ञान उत्सव’ में सम्मिलित होने जैसा है।
मयूरपंख : कृष्णानुराग में पगी वैचारिकी
कृष्ण स्मृति
ओशो रजनीश
धर्म/संस्कृति
पहला संस्करण, 1979
पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2011
रिबेल, एन इप्रिंट आफ ताओ पब्लिशिंग प्रा. लि., पुणे
मूल्य: 1,650 रुपए
कानपुर, यतीन्द्र मिश्र। ओशो रजनीश के भारतीय संस्कृति, पौराणिक कथाओं तथा इतिहास के मिथक चरित्रों पर अनूठे ढंग से की गई दार्शनिक व्याख्याओं के संकलनों में श्रीकृष्ण चरित्र पर 21 वार्ताओं की पुस्तक ‘कृष्ण-स्मृति’ इस अर्थ में पढ़ने योग्य है कि यहां रजनीश कुछ मौलिक स्थापनाओं के चलते अपने शिष्यों की जिज्ञासा का समाधान प्रस्तुत करते हैं। ‘कृष्ण-स्मृति’, भारतीय जीवन में पगे 16 कलाओं संपन्न श्रीकृष्ण की चरितगाथा का आख्यान ही नहीं, बल्कि सहज, मनोवैज्ञानिक, आध्यात्मिक, तार्किक और आधुनिक विश्लेषण भी है।
इसमें उनके बाल्यकाल की छवि, जो सूरदास और अष्टछाप कवियों से जुड़ती है, महाभारत की विभिन्न मुद्राएं तथा कालखंडों में हुए अनेक कवियों द्वारा कृष्णोपासना की गाथाएं- सभी कुछ शामिल हैं। ओशो ने इस पुस्तक में इन सब प्रकरणों पर समग्रता से विचार किया है। इसमें कृष्ण की मनोहारी छवि का दार्शनिक और राजनीतिक अंकन पढ़ने के साथ ही राधा के साथ उनके प्रणय, माधुर्य और अलौकिक प्रेम का सरस वर्णन पढ़ना आनंदित करता है। बेहद पठनीय और संग्रह योग्य कृति, जो कृष्णानुराग जगाती है।