यूपी में क्यों बढ़ रहा प्रदूषण, अर्बन क्लाइमेट जर्नल में प्रकाशित आइआइटी छात्र के शोध में बड़ा खुलासा
आइआइटी के छात्र ने वर्ष 2013 और 2014 में प्रदूषण के आंकड़ों का अध्ययन करके रिपोर्ट जारी की है। प्रो. मुकेश शर्मा के निर्देशन में छात्र का शोध अर्बन क्लाइमेट जर्नल में प्रकाशित हुआ है जिसमें यूपी में बढ़ते प्रदूषण की वजह का जिक्र है।
कानपुर, जागरण संवाददाता। पंजाब व हरियाणा में फसलों के अवशेष पयार (पराली) जलाने से न केवल दिल्ली, बल्कि यूपी में भी प्रदूषण का ग्राफ तेजी से बढ़ता है। इन दोनों राज्यों से आ रही गैसों के कारण वर्ष 2013 व 2014 के अक्टूबर व नवंबर में दिल्ली की हवा में पर्टिकुलेट मैटर (पीएम 2.5) 31 प्रतिशत और कानपुर में 20 प्रतिशत ज्यादा रहा था। यह रिपोर्ट भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी) के वैज्ञानिकों ने जारी की है। पांच जनवरी को शोधपत्र अर्बन क्लाइमेट जर्नल में भी प्रकाशित हुआ है।
आइआइटी के प्रोफेसर मुकेश शर्मा के निर्देशन में छात्र डा.पवन कुमार नागर ने फसल अवशेषों को जलाने से गंगा के मैदानी इलाकों में वातावरण पर पडऩे वाले प्रभाव का अध्ययन किया था। साथ ही मुख्य उत्सर्जन स्रोत से दूर के स्थानों पर फसल अवशेषों को जलाने पर पडऩे वाले प्रभाव को देखा था। डा.शर्मा ने बताया कि यह अध्ययन मौसम अनुसंधान और पूर्वानुमान (डब्ल्यूआरएफ) माडल पर आधारित है, जो रसायन विज्ञान और एक अन्य हाइब्रिड रासायनिक परिवहन माडल के साथ मिलकर तैयार किया गया है। वर्ष 2013 व वर्ष 2014 में अक्टूबर और नवंबर माह में किए गए शोध से पता चला कि पंजाब व हरियाणा में फसल अवशेष जलने से दिल्ली और कानपुर सीधे प्रभावित होता है, क्योंकि सर्दियों में उत्तर पश्चिम से आ रही हवाएं गंगा बेसिन के माध्यम से आगे संचरण करती हैं।
कानपुर में 31 प्रतिशत कण पंजाब व हरियाणा के
शोधपत्र के अनुसार अक्टूबर व नवंबर में फसल अवशेष जलाने से उठने वाले पर्टिकुलेट मैटर (पीएम) 2.5 दिल्ली में कुल पीएम 2.5 सांद्रता का लगभग 31 प्रतिशत था। इसी तरह कानपुर में पीएम 2.5 कुल सांद्रता का 21 प्रतिशत था। उन दोनों महीनों के दौरान दिल्ली में औसत पीएम 2.5 सांद्रता 246 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर और कानपुर में 229 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर थी, जिसमें से दिल्ली की हवा में फसल अवशेषों से उत्पन्न पीएम 2.5 सांद्रता औसत 72 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर और कानपुर में 48 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर रही थी। डा. मुकेश ने बताया कि सात वर्ष पूर्व हुए शोध के आधार पर यह पेपर हाल ही में प्रकाशित हुआ है। साथ ही इस माडल से अब आगे भी प्रदूषण में फसल अवशेषों को जलाने के उत्पन्न उत्सर्जन की मात्रा को पता लगाना आसान होगा।
दिल्ली में चार स्थानों पर लिया था वायु गुणवत्ता का डेटा
प्रो. मुकेश ने बताया कि नवंबर से दिसंबर 2013 में दिल्ली में चार स्थानों रोहिणी, ओखला, द्वारका, वसंतकुंज में पीएम 2.5 के लिए वायु गुणवत्ता की मात्रा आंकी गई थी। इसी तरह कानपुर में नवंबर से दिसंबर 2013 के दौरान आइआइटी में वायु गुणवत्ता का ब्योरा लिया गया था। यही नहीं, शोध के दौरान सामने आया कि फसल अवशेष जलाने से वाष्प और सल्फर डाइआक्साइड, नाइट्रोजन डाइआक्साइड, गैर मीथेन हाइड्रोकार्बन और गैर-मीथेन वाष्पशील कार्बनिक यौगिक, फोटोकेमिकल प्रतिक्रियाओं के माध्यम से कण पदार्थ में परिवर्तित हो जाते हैं और वे भी गंगा बेसिन के माध्यम से संचरित होते हैं। यही कारण है कि पीएम 2.5 की सांद्रता में उनका योगदान अधिक है।