गणेश शंकर विद्यार्थी का आलेख, जिसमें स्वराज्य आंदोलन का आह्वान करते हुए लिखे युवाओं को जगाने वाले शब्द
गणेश शंकर विद्यार्थी ने आलेख और पत्र को देश के युवाओं को स्वतंत्रता आंदोलन के लिए जगाने के लिए माध्यम बनाया। देश को दासता से मुक्त कराने के लिए हालात बयां करते हुए उत्साह जगाने का काम किया।
देश को दासता के दंश से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से पत्र व आलेखों को माध्यम बनाकर लोगों में उत्साह जगाने का काम करते थे गणेश शंकर विद्यार्थी। देश के युवाओं के नाम स्वराज्य आंदोलन का आह्वान करते उनके एक आलेख के अंश..
देश के सजीव हृदयों में स्वराज्य की प्रबल आकांक्षा का उदय हो गया है। वे भली-भांति समझ गए हैं कि जिस देश के निवासियों को अपने कानून अपनाने का अधिकार न हो, जो अपनी रक्षा के लिए अस्त्र न बांध सकें, जो देश की समृद्धि के लिए अपने व्यापार की रक्षा न कर सकें, जो अपने ही देश के ऊंचे पदों पर न पहुंच सकें और क्रूर नियमों और उन्नति में बाधा डालने वाली नीति में परिवर्तन न कर सकें, उस देश के निवासियों का जीवन अत्यंत दुखमय है। इसीलिए उनके हृदय में इस विश्वास का जन्म हुआ है कि बिना स्वराज्य के देश का सच्चा कल्याण नहीं हो सकता।
परंतु दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं, जिनके हाथों में शक्तियां हैं। वे भारतवासियों की इस आकांक्षा की उपेक्षा करना अपना परम कर्तव्य समझते हैं। यद्यपि लार्ड हार्डिग जैसे बड़े शासक ने भारतीयों की स्वराज्याकांक्षा को उचित बतलाते हुए सत्ताधारियों को चेतावनी दी थी कि समय आ रहा है कि भारतीयों को आगे बढ़ने के लिए उन्हें मार्ग देना और अपने कुछ अधिकारों से नमस्कार करना पड़ेगा, परंतु संसार में ऐसे आदमी बहुत ही थोड़े हैं जो किसी अच्छे-से-अच्छे काम के लिए अपने अधिकारों से विलग होने के लिए राजी हों और यही बात हमारे सामने भी है। इसीलिए विरोधी पक्ष इस बहाने को पेश करने के लिए विवश होता है कि हमारी यह आकांक्षा कृत्रिम है। हमारे विरोधी तो इस बात को सदैव कहते रहेंगे, क्योंकि इसके विरुद्ध बात कहने से उनके स्वार्थो को धक्का पहुंचता है।
हमारी वर्तमान अवस्था ऐसी नहीं है जो हमें संसार के बराबर चलने की उत्सुकता रखते हुए भी चुप बैठे रहने दे। अंग्रेजी शासन की बरकतों से कोई इन्कार नहीं, परंतु उसके कारण देश में कई ऐसी बातों का जन्म भी हुआ है, जो देश को अवनति की ओर ले जाने वाली हैं। देश की खुशहाली शिक्षा-प्रचार बिना नहीं बढ़ सकती, परंतु शिक्षा-प्रचार का क्या हाल है? 40 वर्ष में जापान में एक भी अनपढ़ बच्चा नहीं रहा, परंतु भारत पर अविद्या और अज्ञान की घोर घटा छाई हुई है। इंग्लैंड अपने बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा मुफ्त और अनिवार्य रूप से दे, परंतु प्रति बच्चे पर शिक्षा में साढ़े छह आने खर्च होते हुए भी भारत सरकार केवल एक आना प्रति छात्र ही खर्च करना यथेष्ट समङो और जब किफायत की आवश्यकता पड़े, तब शिक्षा-खर्च में ही कतर ब्योंत करने के लिए तैयार हो!
किसानों की सहायता की हालत भी दिन-ब-दिन बुरी होती जाती है। 22 करोड़ भारतीय किसानों में से 10 करोड़ से अधिक केवल एक समय रूखा-सूखा भोजन करते हैं। देश का व्यापार-धंधा अत्यंत शिथिल है। विदेशी उसके लाभ उठाते हैं, परंतु देश की सरकार उसकी रक्षा तक नहीं कर सकती। देश पर ऋण बढ़ता चला आ रहा है। सरस्वती के मंदिर तक में भेदभाव की लकीरें खिंची हैं। विदेश में हमारे घोर अपमान की कथाएं बहुत प्रसिद्ध हैं। देशोन्नति में बाधा डालने वाले अनेक कानून-कायदे बनते जाते हैं। प्रेस ऐक्ट ने समाचार-पत्रों की स्वाधीनता का गला घोंट दिया और अन्य कितने ही ऐक्टों ने हमारे बोलने-चालने और काम करने की आजादी छीन ली है। यदि देश के शासन में देशवासियों का यथेष्ट हाथ होता तो ये बातें कदापि न हो पातीं। हमारे हकिमों में भारतीय भी हैं, परंतु सिविल सर्विस में 1,319 आदमी हैं, जिनमें केवल 46 भारतीय हैं और वे भी महत्व के स्थानों पर नहीं। अपने ही देश के शासन में भारतीयों का कितना कम हाथ है, यह बात इन दो अंकों से पूर्णतया स्पष्ट है।
हमारी वर्तमान अवस्था हमें घोर निद्रा में मग्न नहीं रहने दे सकती। आकांक्षाएं उत्पन्न हुए बिना नहीं रह सकतीं और जो लोग हमारी इन आकांक्षाओं को कृत्रिम कहते हैं, उनमें सहानुभूति और उदारता से किसी बात को समझने की शक्ति ही नहीं। हमारे विरोधियों का एक दल हमें स्वराज्य के अयोग्य सिद्ध करते नहीं थकता। अभ्यास आदमी को योग्य बनाता है। हमें अभ्यास का अवसर नहीं मिलता, इसलिए अपनी त्रुटियों के लिए हम बहुत अधिक दोषी नहीं हैं। हमें विश्वास है कि हम अभी तक इतने अयोग्य नहीं हो गए कि अपने पूर्वजों के उन गुणों को बिल्कुल ही खो बैठे हों। अपनी बात के प्रमाणस्वरूप हम बड़ौदा, मैसूर, ग्वालियर, कोचीन, ट्रावनकोर आदि देशी राज्यों की ओर संकेत कर सकते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि स्वराज्य आंदोलन के लिए यह ठीक समय नहीं, युद्ध के पश्चात जो चाहे सो करना और कुछ हमारे शांतिप्रिय भाई भी तेज चाल से घबड़ाते हैं। वे फूंक-फूंककर और गिन-गिनकर कदम रखने के कायल हैं और वैसा ही करने की सलाहें देते हैं। नहीं तो उनकी भविष्यवाणी है कि ठोकर खाओगे और गिर पड़ोगे।
स्वराज्य आंदोलन अंग्रेजी सत्ता की जड़ उखाड़ फेंकने वाला नहीं है, इसलिए वह युद्ध के समय भी हो सकता है और उसका इस समय करना इसलिए और भी आवश्यक है कि कहीं युद्ध के पश्चात भारतवर्ष इंग्लैंड के सिवा अंग्रेजी उपनिवेशों की मातहती में न दे दिया जाए, जैसा कि एक बार चर्चा चल चुकी है। भारतवर्ष इस बात में अपना अपमान समझता है और इसलिए इस आंदोलन द्वारा उसके बच्चे यह सीखना चाहते हैं कि भारतवर्ष उपनिवेशों का सेवक कभी न होगा, वह उनकी बराबरी का बनेगा। फूंक-फूंककर कदम रखने की सलाह व्यर्थ है। मंद गति वालों ने वर्षो की याचना के पश्चात कोई भी संपदा प्राप्त नहीं की है!
हम स्वराज्य-पथ में पग रखकर एक बड़े भारी काम को आरंभ कर रहे हैं। यह परम आवश्यक है कि हम अपने काम का सदा ध्यान रखें, अन्यथा पथ से भटकाने वाले लोग हमारे उद्देश्य की अस्पष्टता से लाभ उठाएंगे। स्वराज्य से हमारा आशय यह है कि हम अपने देश के कल्याण की दृष्टि से, अपने देशवासियों के गुणों के विकास और उनके पथ की रुकावटों को दूर करने के लिए इस बात को परमावश्यक समझते हैं कि देश के वर्तमान शासन में गहरा परिवर्तन हो और देशवासियों को देश के भीतरी मामलों में बिल्कुल स्वाधीनता प्राप्त हो।
देश के युवकों! तुम्हें इस महान कार्य के लिए तैयार होना चाहिए। मार्ग में बड़े-बड़े कष्टों का सामना करना पड़ेगा, परंतु मातृभूमि के कल्याण के नाम पर तुम अपने उद्देश्य से कभी दृष्टि हटाने का विचार भी मत करो। अपना परम सौभाग्य समझो कि तुम ऐसे समय में उत्पन्न हुए हो, जब भारत माता को तुम्हारी सेवा की परम आवश्यकता है। कठिन समय की सेवा हृदय को विकसित करेगी और तुम्हारा विपत्तियों पर न्योछावर हो जाना एक ऐसे महावृक्ष के जन्म का पूर्वसंदेश होगा, जिसके नीचे आगामी भारतीय संतानें खड़ी होकर गदगद हृदय से तुम्हारा नाम लेंगी। देश के युवकों, यह संदेश तुम्हाने सामने है। अपनी इच्छाओं को वश में करो और शरीर को सुदृढ़ बनाओ। ईष्र्या और द्वेष को छोड़कर उदारता से लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हो जाओ और यदि विरोधी टेढ़ी चालें चलते हैं तो देश के भावी कल्याण के नाम पर तुम उस मार्ग का अवलंबन कदापि मत करो!