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'इंसान खुद में ट्रेनिंग और एक्टिंग का स्कूल'

जागरण फिल्म फेस्टिवल के नौवें संस्करण में दर्शकों से रूबरू हुए अभिनेता संजय मिश्रा

By JagranEdited By: Published: Mon, 16 Jul 2018 10:35 AM (IST)Updated: Mon, 16 Jul 2018 10:35 AM (IST)
'इंसान खुद में ट्रेनिंग और एक्टिंग का स्कूल'
'इंसान खुद में ट्रेनिंग और एक्टिंग का स्कूल'

जागरण संवाददाता, कानपुर : फिल्मी दुनिया में खुद को स्थापित करने के लिए जरूरी नहीं है कि किसी बड़े ट्रेनिंग या ड्रामा स्कूल में जाकर पढ़ाई की जाए। इंस्टीट्यूट में सिर्फ एक माहौल मिलता है। इंसान खुद में ट्रेनिंग और एक्टिंग का एक स्कूल है। अपनी रोजाना की जिंदगी में हर इंसान अलग-अलग मंचों पर अभिनय करता है। वही अभिनेता और अभिनेत्री लंबे समय तक फिल्मी दुनिया में स्थापित रहते हैं जो अपने अभिनय की क्षमता को पहचान लेते हैं और यह पहचान मिलने के बाद भी अपनी प्रतिभा को तराशते रहते हैं। जागरण फिल्म फेस्टिवल के नौवें संस्करण के समापन अवसर पर मौजूद अभिनेता संजय मिश्रा ने अभिनय की परिभाषा कुछ ऐसी बताई।

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रेवथ्री मॉल के कार्निवाल सिनेमा में आयोजित जेएफएफ के तीसरे दिन संजय मिश्रा अभिनीत फिल्म टर्टल का प्रदर्शन किया गया। फिल्म के बाद संजय मिश्रा मिडडे के फिल्म समीक्षक मयंक शेखर के साथ दर्शकों से रूबरू हुए। लोगों ने भी खूब सवाल करके अपनी जिज्ञासा को शांत किया।

दरभंगा से चले, मुंबई पहुंच गए

मयंक का सवाल था कि आप हैं कहां से, हर कोई अलग-अलग शहर से आपका जुड़ाव बताता है? संजय ने कहा कि मैं दरभंगा के नारायणपुर सकरी का हूं, वहां पिता का जन्म हुआ, नौकरी के चक्कर में पिता पटना आए, मेरा जन्म वहां पर हुआ। नौ वर्ष की उम्र में जब मैनें जिंदगी समझनी शुरू की तो वह स्थान बनारस था। मेरी कहानी वैसी ही है जैसे कृष्ण का जन्म कहीं हुआ और पालन पोषण कहीं हुआ।

कानपुर से है गहरा रिश्ता

मयंक के इस सवाल पर कि आप कानपुर कई बार आ चुके हैं यहां से कोई खास रिश्ता है? संजय बोले बचपन में हम लोग कान और नाक पकड़कर बोलते थे कानपुर और नागपुर। पहले सुनते थे कानपुर बहुत बड़ा शहर है। पहली बार फिल्म 'बंटी और बबली' की शूटिंग पर आया था। यहां के लोगों का बोलने और मिलने का अंदाज निराला है। लखनऊ के पास में है लेकिन मिजाज बिल्कुल अलग है। जगहों के नाम भी निराले जैसे फेथफुलगंज।

सफलता दो मिनट वाली नूडल्स नहीं

1991 में मुंबई जाने के बाद भी सफलता काफी समय बाद मिली इससे क्या फर्क पड़ा, इस सवाल के जवाब पर संजय ने कहा कि सफलता एक-एक कदम चढ़कर मिलनी चाहिए, नहीं तो दो मिनट में बनने वाली नूडल्स की तरह जल्दी बनती और उतनी ही तेजी से खप जाती है। सफलता के पास एक असफलता का भी पेड़ लगाएं, ताकि आपकी अपेक्षा के अनुरूप यदि कुछ न हो तो भी आप पहले से उसके मुकाबले में तैयार रहें।

एक मुस्कान ने दिए सारे अवार्ड

वर्ष 2009 में एक बार बीमार होने पर हॉस्पिटल में भर्ती था, पास के कमरे में एक महिला थीं जिनका लिवर ट्रांसप्लांट हुआ, रात भर रो-रोकर उनका बुरा हाल था, सुबह उनके पति मेरे पास आए बोले कि एक बार कमरे में चले चलो। मैंने बात मानी कमरे में गया तो उस व्यक्ति ने पत्‍‌नी से कहा देखो कौन आया है, महिला ने मुझे देखा और सारा दर्द भूलकर मुस्कराई। ऐसे लगा कि सारे फिल्मों के अवार्ड मुझे मिल गए।

कैरेक्टर में ही समा जाओ

किसी कैरेक्टर का रोल करना मुश्किल होता है इसलिए मैं उसके कैरेक्टर में ही समा जाने की कोशिश करता हूं। जैसे किसी के घर में कुछ घटना हो जाए तो खुद को उस घर का सदस्य मानकर महसूस करो।

जब तक जीवित हो तब तक यूथ

लोग यूथ-यूथ करते हैं जबकि संजय की नजर में यूथ कुछ नहीं होता जब तक आप जीवित हो तब तक यूथ हो। बस जरूरत है जिंदगी में थोड़ा एडवेंचर भरने की। सब कुछ करना, सीखना चाहिए। किसी की जब तबियत खराब होती है तो वह सब कुछ लुटाकर खुद को बचाने में जुट जाता है, यदि हर रोज इंसान खुशी बांटे और उसमें ही जिए तो समस्याएं दूर रहेंगी।

आज पैसा है गोलगप्पा नहीं

संजय कहते हैं जनता ने इतना प्यार दिया कि मेरा गोलगप्पा खाना छूट गया। ट्रेन की खिड़की की सरिया पकड़कर बैठना भूल गए। जहां भी जाओ लोग सेल्फी और फोटो लेने लगते हैं। आज पैसा बहुत है, लेकिन खुले में खड़े होकर गोलगप्पा खाना भूल गए। कपड़ा खरीदने जाओ तो दुकानदार सामान दिखाना छोड़कर फोटो खिंचवाने लगता है, इस चक्कर में कई बार घर में गलत कपड़े पहुंच जाते हैं।

बैंक का काम नहीं कर पाता

सवाल था कि आप एक्टिंग, फोटोग्राफी, डायरेक्शन सब कुछ कर लेते हैं, ऐसा क्या है जो नहीं कर पाते हैं? संजय ने कहा मैं बैंक का काम नहीं कर पाता हूं। सितार बजा लेता हूं क्योंकि वह पापा को दहेज में मिला था, कलाकारी और कविता खून में।


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