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कानपुर में एक ऐसा गांव, जहां हर घर में सुनाई देती है शहनाई की गूंज

कानपुर के मझावन गांव के शहनाई वादक कभी नानाराव पेशवा व राजा मार्तण्ड सिंह की महफिल सजाते थे।

By AbhishekEdited By: Published: Sat, 25 May 2019 01:35 PM (IST)Updated: Sat, 25 May 2019 02:20 PM (IST)
कानपुर में एक ऐसा गांव, जहां हर घर में सुनाई देती है शहनाई की गूंज
कानपुर में एक ऐसा गांव, जहां हर घर में सुनाई देती है शहनाई की गूंज

कानपुर, [जागरण स्पेशल]। शादी समारोह और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शहनाई के सुरीले स्वर कानों में पड़ते ही रोम रोम संगीतमय हो जाता है, वहीं मातम में सुर नौहा माहौल को गमगीन बना देता है। शहनाई के सुरों कुछ ऐसी गूंज कानपुर के एक गांव में हर घर में सुनाई देती हैं। इस गांव के शहनाई वादक पांच पीढिय़ों से हुनर को जिंदा रखे हैं, इनके पूर्वज कभी नानाराव पेशवा व राजा मार्तण्ड सिंह की महफिल सजाते थे। शास्त्रीय संगीत में शहनाई की धुन से देश विदेश में लोगों को मोहित करने वाले सर्वश्रेष्ठ शहनाई वादक भारत रत्न बिस्मिल्लाह खां भी यहां के शहनाई वादकों की तारीफ कर चुके हैं। आइए जानते हैं शहनाई के उस्ताद की जुबानी सुर, समय के साथ कुछ अनछुए पहलू...।

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पांच पीढिय़ों से जिंदा है कला

शहर से 20 किलोमीटर दूरी पर जहानाबाद रोड पर स्थित मझावन गांव के शहनाई वादक बीते करीब 270 वर्षों से कानपुर समेत दूरस्थ प्रदेशों में अपनी शहनाई की धुन से शादी समारोह और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की महफिल सजा रहे हैं। बिधनू ब्लाक के इस गांव के अधिकांश घरों में शहनाई के मधुर सुर गूंजते सुनाई देते हैं। अंग्रेजों के शासनकाल में यहां के शहनाई वादक रणभेरी स्वर के राग निकालते थे जो जंग जंग-ए-आजादी के लिए जोश भरते थे। पांच पीढिय़ों से ये लोग अपने पूर्वजों के इस हुनर को आज भी जिंदा रखे हुए हैं।

18वीं शताब्दी से पहले का मझावन की शहनाई का इतिहास

92 वर्षीय शहनाई वादक नूरनबी ने बताया कि अपने बुजुर्गों से सुना था कि सन 1748 के करीब उनके पूर्वज ग्वालियर से मझावन आए थे। उसी बीच कुछ परिवार रीवां, दिल्ली, हैदराबाद, लखनऊ और वाराणसी में रहने लगे थे। 18वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के पतन के समय दिल्ली में आश्रय न मिलने के कारण शहनाई के कलाकार मुर्शिदाबाद और जयपुर चले गए। यहां इन्होंने काफी उन्नति की। कानपुर उस समय अवध रियासत का हिस्सा होता था। इस क्षेत्र के आमिल अल्मास अली का प्रशासनिक केंद्र जहानाबाद हुआ करता था, जो उस काल में संपन्न नगर था। इसके ही बाहरी क्षेत्र से संबद्ध था मझावन। इसी दौर में मुगलिया सल्तनत पतन की ओर थी।

बेवक्त की शहनाई नहीं बजती यहां

यहां के शहनाई वादक परंपरा अनुसार बेवक्त ही शहनाई नहीं बजाते हैं। नूरनबी बताते हैं कि उनकी परंपरा में दिन के हर प्रहर के लिए राग तय हैं। सोते हुए राग को जगाना यहां गलत माना जाता है। सुबह के वक्त राग भैरवी, भैरव, असावरी, तोड़ी, मालकौंस, बिलासखानी तोड़ी व भैरवी, तोड़ी थाट से 14 प्रकार की तोड़ी व मुल्तानी आदि राग बजाते हैं। दोपहर के वक्त सारंग, पूरियाधनाश्री, वसंत व भीमपलासी, पीलू, काफी, वृंदावनी सारंग और शाम के वक्त खमाज थाट, झिझोटी, तिलंग, खमाज, रागेश्वरी, बागेश्वरी, सोरठ, देश, जयजयवन्ती व तिलक कामोद आदि राग बजाए जाते हैं। मातम में शहनाई से मातमी धुन नौहा बजाई जाती है। नौहा धुन बजाते वक्त शहनाई वादक स्वयं में गमगीन हो जाता है।

राजदरबारों की शान थी शहनाई

मझावन गांव से 200 मीटर पहले बारादुवारी में रहने वाले शहनाई वादक रसीद मास्टर बताते हैं कि पहले राजा-महाराजाओं के दरबार में शहनाई शान समझी जाती थी। शहनाई अब डीजे और बैंड के शोर में लुप्त होती जा रही है। शास्त्रीय संगीत से ताल्लुक रखने वाली शहनाई युवा पीढ़ी को रास नहीं आ रही है। आर्केस्ट्रा की धुन पर थिरकने वाले युवाओं के लिए शहनाई का कोई महत्व नहीं है। बुजुर्ग भी युवा पीढ़ी को शास्त्रीय संगीत से जुड़ी शहनाई की किवदंती नहीं सुनाते और न शहनाई के महत्व को समझाते हैं। शादी-समारोह के दौरान शहनाई की धुन लोगों के हृदय को छूती थी। विदाई समारोह के दौरान शहनाई की धुन सुनते ही लड़की पक्ष के लोगों की आंखें स्वत: ही नम हो जाती थी।

राजा नानाराव पेशवा के बुलावे पर बिठूर में बजाई थी शहनाई

शहनाई वादक आशिक भाई बताते हैं कि बिठूर के राजा नानराव पेशवा के बुलावे पर होली के दिन पर दादा गजुद्दी चार अन्य सदस्यों के साथ बिठूर गए। वहां रंग के बीच जमकर शहनाई के सुर बिखेरे थे। पेशवा हमारे बाबा की शहनाई के राग को सुनकर गदगद हो गए। इसके बाद मझावन से दो हजार शहनाई बनवा अपने सिपाहियों को बांटी थी। रीवां के राजा मार्तण्ड ङ्क्षसह के दरबार में हर वर्ष जन्माष्टमी के पर्व पर उनके दादा अल्ला रखूं टीम के साथ शहनाई बजाने जाते थे। राजा खुश होकर इनाम दिया करते थे। इसके साथ ही मझावन की शहनाई मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद, भोपाल सहित देश के हर कोने में गई।

बिस्मिल्लाह खां के साथ भी मझावन के कलाकारों ने की संगत

नूरनबी ने बताया कि वह बड़े भाई मोहम्मद लतीफ और साथी मोहम्मद हमीद के साथ आजादी से पहले कानपुर बिरहाना रोड पर सांस्कृतिक कार्यक्रम में शहनाई बजाने गए थे। जहां उस्ताद बिस्मिल्लाह खां भी आए हुए थे। एक ही मंच पर उन्हें उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के साथ शहनाई बजाने का मौका मिला था। उस दौरान उन्होंने मझावन के सभी कलाकारों की जमकर तारीफ की थी। कहा था कि किसी स्कूल में संगीत शिक्षा लिए बिना और संसाधनों के अभाव के बावजूद शहनाई के धुनों पर इतनी अच्छी पकड़ काबिले तारीफ है।

बनारस से आती लकड़ी, खुद बनाते शहनाई

वाराणसी से आने वाली शहनाई की लकड़ी का हिस्सा करीब 500-600 रुपये का आता है और सुर निकालने वाले हिस्से के साथ इसकी कीमत 1000-1200 रुपये के आसपास पड़ती है। इसे मंगाकर मझावन के कलाकार खुद शहनाई तैयार करते हैं। एक शहनाई वादक की टीम में सुर मास्टर, ढोलक और मंजीरा वादक समेत चार लोग होते हैं। रसीद मास्टर ने बताया कि शहनाई सीखने में 7-10 साल लग जाते हैं। उन्होंने 15 साल रियाज किया तब पारंगत हुए। उन्होंने बताया कि जैसे जैसे शहनाई की मांग कम हो रही है, वैसे ही शहनाई भी छोटी होती जा रही है। पहले 22 इंच लंबी शहनाई होती थी और अब 16 इंच वाली रह गई है। आशिक भाई कहते हैं कि उन्होंने 14 से 30 साल की उम्र तक शहनाई पर रियाज किया। इसके बाद प्रोग्राम लेने शुरू किए। हमारी पीढ़ी तक तो यह चला, लेकिन बेटे और पोतों ने इससे किनारा कर लिया।

अब न तो वैसे हुनरमंद उस्ताद रहे और न ही दिल लगाकर सीखने वाले शार्गिद। हम एकांत में तड़के तीन बजे तक रियाज करते थे, लेकिन अब तो फिल्मी धुनें बजाकर लड़के खुश हो जाते हैं। इल्म की इस कमी की दूसरी बड़ी वजह गांव में संगीत का स्कूल न होना रहा। अगर यहां शास्त्रीय संगीत का कोई स्कूल होता तो नई पीढ़ी को मोडऩा आसान होता। बुजुर्ग नूरनबी उदास आवाज और भावहीन चेहरे के साथ बोले कि मेरे बेटों की पीढ़ी के साथ ही शहनाई के कई सुर कब्र में चले जाएंगे।

शिक्षा के अभाव और गरीबी से सीमित रह गई मझावन की शहनाई

मझावन के सुर मास्टर मोहम्मद कादिर, ढोलक वादक मोहमद म•ाहर और मंजीरा वादक मासुकली बताते हैं कि गरीबी के कारण उनके बुजुर्गों ने कभी पढ़ाई पर ध्यान नहीं दिया। शहनाई वादन विरासत के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा। उन्हें संगीत स्कूल में दाखिला नहीं मिला। कई पीढिय़ों से खाने-कमाने का जरिया शहनाई ही रही है। जब कभी रुपयों की दिक्कत हुई तो कर्ज लेकर काम चला लिया गया। सहालग में कर्ज लौटा दिया जाता था। बदलते दौर में शास्त्री संगीत की पढ़ाई करके निकले संगीतकार धुनों पर गानों के बोल लिखने लगे, लेकिन मझावन के अनपढ़ कलाकार इसमें पीछे रहे। घरानों की किताबों से सुरों का मिलान जरूरी होता था, पर यहां कोई इस स्तर तक नहीं पहुंचा। गांव में अब भी करीब 100 परिवार शहनाई बजाने का काम करते हैं।

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