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ऐसे तो भुखमरी की कगार पर आ जाएंगे 18 गांव

इसे हम कानपुर की बदकिस्मती मानें या दुर्योग, यहां सियासतदां तो हमेशा सुस्त रहे ही, इसके अलावा अफसर भी बेपरवाह ही आए।

By JagranEdited By: Published: Sat, 16 Feb 2019 02:00 AM (IST)Updated: Sat, 16 Feb 2019 10:05 AM (IST)
ऐसे तो भुखमरी की कगार पर आ जाएंगे 18 गांव
ऐसे तो भुखमरी की कगार पर आ जाएंगे 18 गांव

जागरण संवाददाता, कानपुर : इसे हम कानपुर की बदकिस्मती मानें या दुर्योग, यहां सियासतदां तो हमेशा सुस्त रहे ही, इसके अलावा अफसर भी बेपरवाह ही आए। इसका अंदाजा चकेरी वार्ड के इन 18 गांवों की हालत से ही लगा सकते हैं। सीवर का पानी शोधित कर खेतों की सिंचाई के लिए दिया जाना कोई नई व्यवस्था नहीं है। यह काम दुनिया भर में हो रहा है, लेकिन कानपुर में ही ऐसा क्या है कि यहां यह जल जहर बन गया। यह सामने आ ही चुका है कि तीन दशक में सैकड़ों ग्रामीणों के हाथ-पैर की अंगुलियां सड़ गई तो तमाम बीमारियों ने घेर लिया है। अब अगर जल निगम के अधिकारियों की बात मानी जाए कि यह पानी तो सिर्फ सिंचाई के लिए है तो सवाल उठता है कि फिर जमीन क्यों खराब हो रही है। इस पानी के दुष्प्रभाव से उर्वरा शक्ति तीन गुना तक कैसे कम हो गई। यही सिलसिला ऐसे ही चलता रहा तो पानी को तरस रहे यहां के ग्रामीण भुखमरी की कगार पर भी पहुंच जाएंगे।

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तीन दशक में तीन गुना तक कम हो गई खेतों की उर्वरा शक्ति

जागरण संवाददाता, कानपुर : वाजिदपुर सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट में शहर भर का सीवर और टेनरियों को उत्प्रवाह पहुंचता है। उसे शोधित कर लगभग 25 किलोमीटर लंबी नहर से 18 गांवों को सिंचाई के लिए पानी दिया जाता है। इस पानी के शोधन पर सवाल है, क्योंकि क्रोमियम की अधिकता इंसानों को चर्म रोग देने के साथ फसलों को भी उजाड़ रही है।

चकेरी वार्ड के यह गांव कभी संपन्नता की खुशबू बिखेरते थे। ग्रामीण बताते हैं कि तीन दशक पहले यहां बड़े पैमाने पर गुलाब सहित अन्य फूलों की खेती होती थी। हरी मिर्च का भी बड़े स्तर पर उत्पादन था। गांव में जो पक्के घर नजर आ रहे हैं, वह सब उसी खेती का कमाल है। यहां की भूमि की उर्वरा शक्ति ऐसी थी जिसमें गेहूं, दलहन, तिलहन भी भरपूर मात्रा में पैदा होता था। उस वक्त तक इन गांवों को सिंचाई के लिए सीवर में गंगा का पानी मिलाकर दिया जाता था। 90 के दशक से गंगा का पानी देना बंद कर दिया गया। सीवर और टेनरियों का उत्प्रवाह शोधित कर दिया जाने लगा। जल निगम दावा करता है कि पानी का शोधन किया जा रहा है। पानी में क्रोमियम की मात्रा अधिकतम दो मिलीग्राम प्रतिलीटर होनी चाहिए, जबकि नहर में छोड़े जा रहे पानी में बमुश्किल 0.2 मिलीग्राम प्रतिलीटर के आसपास ही क्रोमियम रहता है। सवाल फिर उठता है कि शोधित जल यदि कागजों से इतर वास्तविकता में भी मानकों पर खरा है तो इतने वर्षो में फूलों की खेती कैसे उजड़ गई? क्यों अब यहां मिर्च पैदा नहीं होती? क्यों जमीन की उत्पादकता 15 क्विंटल प्रति बीघा से घटकर पांच-छह क्विंटल प्रति बीघा रह गई?

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पानी ज्यादा लगे तो झुलस जाती है फसल

ग्रामीणों ने बताया कि नहर में आने वाले पानी से सिंचाई करते वक्त काफी सावधानी बरतनी पड़ती है। यदि ज्यादा समय तक खेत में पानी रह जाए या ज्यादा पानी दे दिया जाए तो कई बार फसल झुलस जाती है। यह सब पानी में रसायनों की अधिकता की वजह से ही हो रहा है। इस कारण से तमाम किसानों की लागत डूब जाती है और उन्हें नुकसान झेलना पड़ता है।

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कौन चुकाएगा गुड़िया का दस हजार

यह पानी खेतों के लिए कैसा है, इसका जवाब शेखपुर निवासी गुड़िया के आंसू देते हैं। उनके पति राजेंद्र के हाथ की अंगुलियां सड़कर टपक चुकी हैं। अब पैर में भी घाव हो गया है। चार बच्चे हैं, उन्हें पालने के लिए वह चुकंदर की खेती करती हैं। गुड़िया ने बताया कि हमारे पास तो जमीन है नहीं। 15 बिस्वा खेत बंटाई पर लिया है। अक्टूबर में चुकंदर बोया था। नहर के पानी से सिंचाई कर दी। जाने क्या हुआ कि पूरी फसल झुलस गई। दस हजार रुपये लागत लगाई थी, जो बर्बाद हो गई। खेत मालिक को पैसा देना ही पड़ा। फिर दोबारा चुकंदर बोया। किस्मत से शेखपुर की पानी टंकी से निकली लाइन में खेत के पास ही लीकेज हो गया। उसके पानी से सिंचाई की तो फसल हो पाई है, लेकिन दस हजार का घाटा तो हो ही गया।

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चटक जाती है गोभी और चुकंदर

किसानों ने बताया कि जमीन की उर्वरा शक्ति खत्म होने के साथ ही उपज की गुणवत्ता भी प्रभावित हुई है। गोभी का फूल आकार में तो बड़ा हो रहा है, लेकिन रसायनों की वजह से अब उसमें पहले जैसा स्वाद नहीं रहा। इसके अलावा चुकंदर का उत्पादन तो हो रहा है, लेकिन क्रोमियम के असर से वह चटक जाता है। बाजार में उसका उचित मूल्य नहीं मिलेगा, इसलिए छांटकर मंडी ले जाना पड़ता है।

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सुनिए ग्रामीणों का दर्द

'पानी में आने वाले केमिकल ने खेत खराब कर दिए। इन गांवों में फूलों और हरी मिर्च की खेती किसानों को बड़ा मुनाफा देती थी। अब गुलाब उगता नहीं, अन्य फूल भी नाम मात्र ही बचे हैं।'

सोनेलाल यादव, संरक्षक, फूल उत्पादक कल्याण सेवा समिति

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'रसायनयुक्त पानी से खेतों की उर्वरा शक्ति कम हो रही है। अधिकारियों को कई बार बता चुके हैं, जनप्रतिनिधि भी यहां की समस्या से वाकिफ हैं। मगर, किसानों की बदहाली से किसी को लेना-देना नहीं है।'

कमलेश कुमार निषाद, किशनपुर

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'हमें नहीं चाहिए ऐसा पानी। पहले की तरह सीवर में गंगा का पानी मिलाकर दे दें। कई साल पहले जाजमऊ में हुई बैठक में मना कर चुके थे कि हमें यह पानी नहीं चाहिए। कम से कम खेती तो बच जाएगी।'

रमेश चंद्र, त्रिलोकपुर

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'पहले 10-15 क्विंटल प्रति बीघा अनाज उत्पादन होता था। नहर के पानी ने मिट्टी खराब कर दी। शिकायत करने के बाद भी कभी मिट्टी की जांच नहीं हुई। अच्छा पानी मिले तो बिल देने को तैयार हैं।'

मूलचंद, त्रिलोकपुर

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फिर गंगा में जा रहा दूषित पानी

जल निगम भले ही इस पानी को शोधित कह कर दे रहा हो, लेकिन पानी देखने पर ही पता चल जाता है कि यह कैसा है। जहां से पानी नहर में गिर रहा है, वहां लगातार झाग उठता रहता है। अधिकारी कहते हैं कि झाग तो इसलिए उठता है, क्योंकि पानी प्रेशर से गिरता है। मगर, अधिकारियों को यह नजर नहीं आता कि कई किलोमीटर का फासला तय करने के बाद भी पानी का रंग नहीं बदलता। ऐसा सफेद पानी खेतों में जाता मिलता है, जैसे रसायन का ही घोल हो। चिंताजनक बात यह भी है कि सभी गांवों में यह पानी खेतों में जाता है। अलग-अलग नालीनुमा फूटी हुई हैं। खेतों से बचने वाला पानी सीधा गंगा में जा रहा है। इस पानी से गंगा भी प्रदूषित हो रही हैं।


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