बुन्देली ़जमीन पर चमन बरसाएगी जीरो बजट खेती
फोटो : 20 बीकेएस 7 ::: - जंगल की थ्योरी को कृषि में लागू करने का परिणाम रहा अद्भुत - थ्योरी के
फोटो : 20 बीकेएस 7
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- जंगल की थ्योरी को कृषि में लागू करने का परिणाम रहा अद्भुत
- थ्योरी के जनक सुभाष पालेकर को मसीहा मानते हैं दक्षिण भारत के किसान
- कहा- बुन्देली ़जमीन इस प्रकार की खेती के लिए सबसे उपयुक्त
झाँसी : सुभाष पालेकर - माफ कीजिएगा - 'पद्मश्री' सुभाष पालेकर - कुछ जाना पहचाना-सा नाम लग रहा होगा यह। कुछ साल पहले तक इस नाम की कोई खास चर्चा नहीं सुनी होगी, पर अब हो रही है- '़जीरो बजट प्राकृतिक कृषि अभियान' के कारण। उत्तर भारत के लोगों - खासकर किसानों - के बीच भले ही अब वो अपनी पहचान बना पाए हों, पर दक्षिण भारत के किसानों में वे बतौर मसीहा जाने जाते हैं - शून्य लागत खेती के कारण। आनन-फानन में विश्वास करने को जी नहीं चाहेगा और करना भी नहीं चाहिए - बा़जार से कुछ ख़्ारीदे बगैर खेती करने को कोई कहे, तो उस व्यक्ति का म़जाक उड़ना स्वाभाविक है। कोई इस बात पर कैसे विश्वास करे कि खेती करने के लिए न तो रासायनिक उर्वरक की आवश्यकता है, और न ही जैविक खाद की। उस किसान को तो तब और गहरा धक्का लगता है, जब उससे कहा जाता है कि खेती के लिए तो गोबर से तैयार इतने अधिक खाद की भी आवश्यकता नहीं। दोस्तों-रिश्तेदारों को छोड़िये, अपना ख़्ाून भी ऐसी नसीहत देने वाले को सन्देह भरी निगाह से देखेगा - बोले भले ही कुछ नहीं - उपालम्भ देती आँखें बिना कुछ कहे काफी कुछ कह जाएंगी - काफी कुछ सोचने पर म़जबूर कर देंगी। ऐसी परिस्थितियों में आपके पास दो ही रास्ते होते हैं - लोगों की बात मानकर या तो आप भीड़ का हिस्सा बन जाएं, या फिर अपनी राह चुनने और उस पर चलकर सफलता हासिल करने वाले सुभाष पालेकर।
सुभाष पालेकर - यही वो नाम है, जिसने वर्ष 1985 में अपने लिए अलग राह बनाने का ़फैसला किया, लगातार 3 साल (वर्ष 1988) तक उस पर चले, सफलता के नये आयाम छुए - और अब देश-विदेश में घूम-घूमकर लोगों को इस पर चलने के लिए प्रेरित कर रहे हैं - बिल्कुल नि:स्वार्थ भाव से - बगैर कोई शुल्क लिए। जितना आसान इस बात को लिखना है, उतना ही कठिन था इस राह को चुनना। जंगल में 3 साल (1985-88) तक किए गए शोध को आजमाने के लिए जो समय और पैसा चाहिए था, वह तो परिजन ही मुहैया करा सकते थे। सुभाष जी कहते हैं- 'समय मेरे पास था, कुछ पैसे भी थे, पर उतने नहीं, जितने इस काम के लिए चाहिए थे। ऊपर से माँ की नसीहत कि इसके लिए किसी से कोई कर्ज नहीं लेना। ऐसे में काम आई पुरखों की ़जमीन और पत्नी के गहने। पहले गहने बेचे, फिर कुछ ़जमीन।' वर्ष 1988 से 2000 के बीच शून्य लागत खेती के लिए तैयार 154 प्रोजेक्ट्स पर काम करना आसान तो नहीं था। पालेकर जी इसका श्रेय अपनी पत्नी को देते हैं, जिन्होंने उनके द्वारा 3 साल तक जंगल में बिताए गए समय का महत्व समझा।
टर्निग पॉइण्ट
सुभाष जी कहते हैं- 'हर व्यक्ति के जीवन में एक समय ऐसा आता है, जो उसे कुछ और करने के लिए प्रेरित करता है। मेरे जीवन में भी आया।' कृषि स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद जब उन्होंने नौकरी की बजाय खेती करने का निर्णय लिया, तो परिजनों को यह अटपटा लगा। पिता परम्परागत खेती करते थे - परम्परागत खेती यानी, गोबर की खाद खेतों में डालकर उपज लेना। यह बात वर्ष 1973 की है। रासायनिक खाद डालकर खेती शुरू की, उपज बढ़ी। लागत हर साल बढ़ रही थी, जबकि उपज यथावत थी। कृषि वैज्ञानिकों से सम्पर्क किया, उनका सपाट जवाब था- 'रासायनिक खाद की मात्रा और बढ़ा दो।' सुभाष जी कहते हैं- 'रासायनिक खाद बढ़ाने की सलाह तो कृषि वैज्ञानिक दे रहे थे, पर उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं था कि जिस हिसाब से लागत बढ़ रही, उपज क्यों नहीं?' जाहिर है मुनाफा घटते ही जाना था। वर्ष 1985 के बाद तो उपज भी घटनी शुरू हो गई, जबकि लागत सुरसा की तरह लगातार मुँह फैलाती जा रही थी। इसने सुभाष पालेकर जी को सोचने पर म़जबूर किया और उन्हें याद आया अपनी पढ़ाई के दौरान आदिवासियों द्वारा की जाने वाली खेती के तौर-तरीकों को समझने के लिए उनके बीच गु़जारा गया समय। यह टर्निग पॉइण्ट था ़जीरो बजट प्राकृतिक खेती के लिए सोचने का। सुभाष जी कहते हैं- 'जंगल में समय इसलिए बिताया ताकि यह समझ सकूं कि आखिर बिना किसी मानव के सहयोग के ये पेड़-पौधे इतने बड़े और जीवट कैसे हो जाते हैं - आँधी-पानी-सूखे का मुकाबला कैसे कर लेते हैं। 3 साल के समय ने जो सीख दी, उसने समझाया शून्य लागत खेती के तौर-तरीकों के बारे में।' 12 साल तक लगातार प्रयोग के बाद वर्ष 2000 में शून्य लागत खेती की तकनीक मिली, जिसे वो देश-विदेश में बाँट रहे हैं - बगैर किसी लोभ-लालच के। उनके 2 बेटों ने इस तकनीक का महत्व समझा और दोनों इससे जुड़ गए। बड़े बेटे ने अमेरिका की नौकरी छोड़ी और छोटे ने एंजिनियरिंग की। सुभाष जी कहते हैं- 'पूरा परिवार इस आन्दोलन से नि:स्वार्थ भाव से जुड़ गया है। देश के 50 लाख किसानों को यह तकनीक भा गई है और वे इसी पद्धति से खेती कर रहे हैं।'
बुन्देलखण्ड तो आइडीअल क्षेत्र
सुभाष पालेकर को जब बुन्देलखण्ड की भौगोलिक स्थिति और प्राकृतिक सम्पदा का पता चला, तो आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता से भर उठे। उन्होंने कहा- '़जीरो बजट खेती के लिए तो बुन्देलखण्ड आइडीअल क्षेत्र है। खेती के लिए जितनी वर्षा की आवश्यकता यहाँ है, यह होती है। जिन अन्ना जानवरों को यहाँ के किसान मुसीबत मानते हैं, वो तो इस क्षेत्र के लिए वरदान हैं। शून्य लागत खेती के लिए तो इन्हीं गौवंश की आवश्यकता है। ़जरूरत सिर्फ इतनी है कि जो संसाधन यहाँ उपलब्ध हैं, उनका नियोजित तरीके से उपयोग किया जाए।' उन्होंने कहा कि यह क्षेत्र पूरे देश में 'दाल का कटोरा' साबित हो सकता है - ़जीरो बजट खेती के तौर-तरीके अपनाकर जिस दलहन का उत्पादन किसान करेंगे, उसकी माँग पूरे विश्व में होगी। रासायनिक खाद मुक्त अनाज की माँग दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। वो कहते हैं यह कोई मुश्किल काम नहीं - उत्तरी कर्नाटक और मराठबाड़ा के किसान जब इस खेती पद्धति को अपनाकर आय बढ़ा सकते हैं, तो बुन्देलखण्ड के किसान क्यों नहीं? उनके लिए तो यह और भी आसान है।
बीच में बॉक्स
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6 दिन में 1500 किसानों को प्रशिक्षित किया जाएगा
झाँसी : बुन्देलखण्ड किसान समृद्धि अभियान ट्रस्ट के मीडिया प्रभारी प्रो. एसआर गुप्ता ने बताया कि पैरा मेडिकल कॉलिज में 21 से 26 सितम्बर के बीच ़जीरो बजट खेती के जनक पद्मश्री सुभाष पालेकर के नेतृत्व में प्रशिक्षण शिविर आयोजित होगा। इसमें बुन्देलखण्ड के सभी ़िजलों से लगभग 1500 किसानों को ़जीरो बजट खेती के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा। शिविर का शुभारम्भ 21 सितम्बर को सुबह 10.30 बजे प्रदेश के कृषि मन्त्री सूर्य प्रताप शाही करेंगे। शिविर में हिमाचल प्रदेश के भी किसान शामिल होंगे, जो पहाड़ी इलाके की खेती के बारे में जानकारी साझा करेंगे। इसके साथ ही विभिन्न जगहों से आए वैज्ञानिक किसानों का उचित मार्गदर्शन करेंगे।
फाइल : सुरेन्द्र सिंह
समय : 5.00
20 सितम्बर 2018