अपनों से दूर हुईं अपनी परंपराएं
पराई सी हो गईं ब्रज की परंपराएं गणेश चतुर्थी पर विशेष : आधुनिकता की आंधी में उड़ी गई गुरु-शिष्य परंपरा आयोजन -आज शिक्षकों के साथ धर्माचार्यों के सम्मान की होगी रस्म अदायगी -मेले के शुरुआत वाले दिन गुरुओं के साथ शिष्यों की टोली नदारद
जागरण संवाददाता, हाथरस : समय के साथ हमारी वे परंपराएं भी विलुप्त होती जा रही हैं, जिनसे हमारी संस्कृति की पहचान है। गणेश चतुर्थी से जुड़ी कुछ परंपराएं भी इसी कड़ी में हैं। शहर में अब गुरुओं के अट्टे नहीं रहे। गणेश चौथ पर चट्टा पूजन की परंपरा भी विलुप्त हो गई। अब दाऊजी मेले के बहाने गुरुओं का सम्मान और बच्चों को लड्डू वितरण की मात्र औपचारिकता निभाई जाती है। कुछ शिक्षकों व धर्माचार्यों का सम्मान जरूर करके रस्म अदायगी की जाएगी।
अतीत की यादें : ब्रज की संस्कृति में रचा-बसा हाथरस भी अब आधुनिकता की दौड़ में शामिल है। एक दौर था जब यहां बच्चों की शुरुआती शिक्षा पाठशालाओं में होती थी। पाठशालाओं का संचालन धर्माचार्य करते थे। इन्हें उन्हीं की पाठशाला या अट्टा के नाम से पुकारा जाता था। इनमें पं.खूबीराम खूब, हरिहर गुरु, पड्डा गुरु, नरोत्तम गुरु, भागीरथ गुरु, योगेश गुरु आदि दर्जनों पाठशालाएं शामिल थीं। आसपास के परिवार अपने बच्चों को शुरुआती शिक्षा यहीं दिलाते थे। गणेश चौथ के दिन बच्चों को पाठशाला में प्रवेश दिया जाता था। बच्चे गुरुओं के साथ चट्टों की पूजा कराते थे और गुरु उन्हें आशीष देते थे। मान्यता है कि इसी दिन भगवान श्रीराम भी पाठशाला गए थे।
मेले में सम्मान : गणेश चौथ से ही ब्रज क्षेत्र का लक्खी मेला श्री दाऊजी महाराज शुरू होता है। सो इसी दिन शहर की सभी पाठशालाओं के बच्चे अलग-अलग टोलियों में चौपाई गाते और चट्टे बजाते हुए अपने-अपने गुरुओं के साथ मेला परिसर में पहुंचते थे। मेला आयोजक गुरुओं का सम्मान करते थे और बच्चों को लड्डू बांटते थे। इसके लिए पाठशालाओं में कई दिन पूर्व से तैयारी होती थी। गुरुजन बच्चों को चौपाई कंठस्थ कराते थे। करीब तीन दशक में यह नजारा बदल गया।
सिर्फ औपचारिकता : मेले का भी स्वरूप बदल गया। जब गुरुओं के साथ बच्चों की टोलियां पहुंचना बंद हो गईं तो आयोजकों ने भी कार्यक्रम का तरीका बदल दिया। अब तो कुछ खास शिक्षकों व धर्माचार्यों को बुलाकर उनका सम्मान कर दिया जाता है। कुछ स्कूलों में बच्चों को बुलाकर लड्डू बांट दिए जाते हैं। इसी परंपरा का निर्वहन आज फिर किया जाएगा। इनका कहना है
वह जमाना अब नहीं रहा। पाठशालाओं के बच्चे गुरुओं के साथ चौपाई गाते हुए मेले में पहुंचते थे। चट्टों का पूजन तो घर-घर होता था। अब तो कुछ ही घर होंगे जहां बच्चों से चट्टे पुजवाए जाते हैं। कान्वेंट कल्चर में परंपराएं खो गईं।
पं.सियाराम, हाथरस मुझे खूब ध्यान है गणेश चौथ वाले दिन जब बच्चे चट्टा लेकर पाठशाला आते थे और यहां से गुरुओं के साथ दाऊजी मेला में पहुंचते थे तो बड़ा अद्भूत नजारा होता था। अब तो न अट्टा रहे और न ही चौपाई। आधुनिकता की दौड़ में सब गायब हो गया।
-गनपत देव शर्मा, शिक्षक।