दातागंज बख्श की दरगाह पर आते हैं जायरीन
¨प्रस शर्मा, गढ़मुक्तेश्वर महाभारत कालीन गंगानगरी के सांप्रदायिक सौहार्द्र की अनूठी मिसाल कह
¨प्रस शर्मा, गढ़मुक्तेश्वर
महाभारत कालीन गंगानगरी के सांप्रदायिक सौहार्द्र की अनूठी मिसाल कहलाए जाने वाली दातागंज बख्श की सैकड़ों वर्ष पुरानी दरगाह शरीफ पर रमजान के मुबारक महीने में सालाना उर्स होता है। इसमें आसपास के जनपदों से बड़ी संख्या में सर्वधर्म के लोग सहभागिता करने आते हैं।
रमजान का पाक महीना लगते ही दातागंज बख्श की 500 वर्ष से भी अधिक पुरानी दरगाह शरीफ पर सालाना उर्स का आयोजन किया जाता है। इसमें विभिन्न स्थानों से प्रसिद्ध कव्वाल चौकड़ी भाग लेती हैं, जिनके नातिया कलाम सुनने को आसपास के जनपदों से बड़ी संख्या में जायरीन का आगमन होता है। अयोध्या विवाद दौरान भी दातागंज की दरगाह आपसी भाईचारे की अनूठी मिसाल बनी रही थी। डा. लताफत हुसैन ने बताया कि दातगंज बख्श का असल नाम अल्लाबख्श था, जिनके नाम पर ही अल्लाबख्शपुर गांव की स्थापना हुई थी। उनके बुजुर्ग ईरान से भारत आए थे। जिस स्थान पर दाता की दरगाह शरीफ बनी है, उसमें करीब आठ सौ वर्ष पहले शाह बलबन ने ईदगाह बनवाई थी।
ईदगाह कमेटी के सचिव डा. अरकान ने बताया कि दातागंज बख्श दरगाह जैसी एक मजार पाकिस्तान के लाहौर में भी है। वहां भी रमजान मुबारक का चांद दिखाई देने पर सालाना उर्स का आयोजन होता है, जिसका समापन नौवीं तारीख को कुल शरीफ के साथ होता है।
उस्ताद शायर जमील मजहर का कहना है कि दाता की मजार पर चादर और झाड़ू लेकर आने वाले भक्तों को शरीर पर निकलने वाले मस्सों की बीमारी से मुक्ति मिलने की मान्यता प्रचलित है। इस कारण बृहस्पतिवार को बड़ी संख्या में भक्तों का आगमन होता है।
मजार पर तीर्थ पुरोहित ने बनवाई थी छत
मनोकामना पूरी होने पर नगर निवासी तीर्थपुरोहित स्व. पंडित रामभरोसे शर्मा ने दाता की मजार के ऊपर लेंटर डलवाकर बारिश और धूप से बचाव को छावे की व्यवस्था कराई थी।