वो 48 घंटे .. जिदगी में कभी नहीं भूल सकते
अमरनाथ यात्रा के दौरान भंडारों में सिलेंडर फटते देखे हैं। दूसरे प्रदेश में डेढ़ माह से अधिक समय तक दोस्तों की तरह रहकर व्यापार करना हमने जम्मू-कश्मीर में सीखा है लेकिन दो अगस्त को जो हुआ। वह जीवन में कभी नहीं भूल पाएंगे। पहली बार जम्मू-कश्मीर में रहकर लोगों के चेहरे पर चिता की लकीरें और डर का एहसास हुआ। हर मुंह पर सवाल था लेकिन उसका कोई जवाब नहीं मिल रहा था। हर कोई जम्मू-कश्मीर से बाहर निकलना चाहता था। पहली बार परिजन के बार-बार फोन आ रहे थे। वो पूछ रहे थे कि आप सुरक्षित हैं या नहीं घर वापस कब लौट रहे हैं इन सवालों का जवाब पल-पल ले रहे थे। वो 4
शुभम गोयल, हापुड़ :
अमरनाथ यात्रा के दौरान भंडारों में सिलेंडर फटते देखे हैं। दूसरे प्रदेश में डेढ़ माह से अधिक समय तक दोस्तों की तरह रहकर व्यापार करना हमने जम्मू-कश्मीर में सीखा है, लेकिन दो अगस्त को जो हुआ। वह जीवन में कभी नहीं भूल पाएंगे। पहली बार जम्मू-कश्मीर में रहकर लोगों के चेहरे पर चिता की लकीरें और डर का एहसास हुआ। हर मुंह पर सवाल था, लेकिन उसका कोई जवाब नहीं मिल रहा था। हर कोई जम्मू-कश्मीर से बाहर निकलना चाहता था। पहली बार परिजन के बार-बार फोन आ रहे थे। वो पूछ रहे थे कि आप सुरक्षित हैं या नहीं, घर वापस कब लौट रहे हैं इन सवालों का जवाब पल-पल ले रहे थे। वो 48 घंटे हम जिदगी में कभी नहीं भूल सकेंगे।
नगर के मोहल्ला कलक्टर गंज निवासी सुभाष चंद सहगल के पुत्र ललित सहगल, सतीश शर्मा के पुत्र सचिन शर्मा और स्व. प्यारेलाल सहगल के पुत्र संजय सहगल दो अगस्त के बाद से जम्मू-कश्मीर में जो घटनाक्रम हुआ है। उसको भूल नहीं पा रहे हैं। यह तीनों पिछले 19 सालों से अमरनाथ यात्रा के दौरान बालटाल में पूजा-सामग्री बेचने की तीन दुकानें लगाते हैं। इन दुकानों पर स्थानीय लोग भी काम करते हैं। पूरी अमरनाथ यात्रा के दौरान इनकी दुकानों पर खासी भीड़ रहती है। यहां तक कि अमरनाथ यात्रा के दौरान वहां लगने वाले भंडारों में सेवाभाव से भी यह कार्य करते हैं। इसके अलावा सैनिकों के साथ श्रद्धालुओं की मदद करना और प्रतिदिन लोगों की सेवा करना इनकी दैनिक दिनचर्या का हिस्सा रहता है। बीते कुछ घंटों में जो इनके साथ बीता, यह इसे कभी नहीं भूलेंगे।
संजय सहगल के अनुसार एक जुलाई तक अमरनाथ यात्रा ठीक प्रकार से चल रही थी। किसी को कोई जानकारी नहीं थी और सभी बाबा बर्फानी की भक्ति में लीन थे, लेकिन दो अगस्त को अचानक सबकुछ बदल गया। पहले यात्रा को रोक दिया गया। इसके बाद यहां लगने वाले पचास से अधिक भंडारों और सौ से अधिक दुकानों को हटाने के आदेश दे दिए गए। वहां मौजूद सैनिकों ने मात्र इतना कहा कि यहां से चले जाओ। पूछने पर, इसके पीछे का कोई कारण नहीं बताया।
सचिन शर्मा ने अनुसार इसके बाद दुकानों से सामान हटाया गया और पास में ही किराये पर लिए हुए एक गोदाम में और कुछ सामान गाड़ी में रखकर वह तीन अगस्त को जम्मू के लिए निकल गए, लेकिन रास्ते में सैनिकों ने उन्हें रोक दिया और वापस श्रीनगर के लिए भेज दिया। हमें समझ नहीं आ रहा था कि हम क्या करें और कहां जाए। इसी बीच परिजन के फोन आने लगे। वह हालचाल जानने लगे और कई सवाल कर रहे थे। जैसे-तैसे सैनिकों से वहां से निकलने के लिए मदद मांगी और उन्होंने मदद करते हुए जम्मू-कश्मीर से निकलने में मदद की। चार अगस्त की सुबह जम्मू-कश्मीर से बाहर निकले और तब जाकर राहत की सांस ली।
संजय सहगल के अनुसार डर का ऐसा माहौल पहली बार अमरनाथ यात्रा और पूरे जम्मू-कश्मीर में देखने को मिला। सेना और प्रशासन के आदेश के बाद पर्यटक किसी भी प्रकार से वहां से निकलना चाहते थे। होटल आदि में लोगों को ठहरने के लिए कमरे नहीं मिल रहे थे। 19 सालों में पहली बार बेहद अजीब बेचैनी थी। हमने भी जैसे-तैसे करके 48 घंटे काटे। रविवार की रात तक जम्मू-कश्मीर में रहने वाले एक मित्र से बातचीत हो रही थी। सोमवार की सुबह तड़के पांच बजे घर पहुंचे और राहत की सांस ली। गाड़ी से सामान उतारा और टीवी पर जानकारी लेनी शुरू की। पहली बार जम्मू-कश्मीर में ऐसा माहौल देखने को मिला है।
अब यह तीनों जम्मू-कश्मीर में शांति के लिए प्रार्थना कर रहे हैं। जिससे कि अगले साल फिर से वहां जाकर अपनी दुकानें लगा सकें और श्रद्धालुओं की सेवा कर सकें।