मुसाफिर हूं यारों : अवसर को भुनाना कोई रेलवे से सीखे Gorakhpur News
पढ़ें गोरखपुर से प्रेम नारायाण द्विवेदी का साप्ताहिक कॉलम-मुसाफिर हूं यारों...
प्रेम नारायण द्विवेदी, गोरखपुर। संकट की इस घड़ी में एक जुमला लोगों की जुबान पर खूब चढ़ा है। आपदा को अवसर में बदलें। लोग इस पर अमल भी कर रहे हैं। रेलवे ने सोचा, क्यों न बहती गंगा में हाथ धो लिया जाए। शुरुआत ई-ऑफिस से हुई। काम का दबाव भी कम था। फाइलों के बोझ से दबे रेलकर्मी कंप्यूटर पर हाथ साफ कर ही रहे थे कि बोर्ड ने री-इंगेजमेंट स्कीम को भी फाइलों के साथ हमेशा के लिए बेठन में बांध दिया। पूर्वोत्तर रेलवे में ही 593 पुनर्नियोजित कर्मचारियों की छुट्टी की प्रक्रिया शुरू हो गई। मुद्दा अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि रिक्त पदों से 50 फीसद की कटौती का आदेश आ गया। इस पर कर्मचारी संगठन के एक पदाधिकारी की पीड़ा छलकी। बुझे मन से बोले, पदों के सरेंडर के साथ ही 109 निजी ट्रेनों की घोषणा कर रेलवे ने शानदार ढंग से आपदा को अवसर में बदला है।
संभल जाइए, फिर से छा जाएगा सन्नाटा
पिछले सप्ताह रेलवे स्टेशन पर तैनात दस रेलकर्मी होमक्वारंटाइन हो गए। सूचना मिली, तो मन बेचैन हो उठा। आदतन, सुरक्षा उपकरणों से लैस होकर स्टेशन का जायजा लेने पहुंच गया। प्लेटफार्मों पर अजीब सी उदासी थी। दफ्तरों में अधिकतर कुर्सियां खाली थीं। कुछ कर्मी डरे और सहमे अपनी टेबल से चिपके थे। समझ में नहीं आ रहा था कि कहां बैठें, किससे बात करें। अंदर उथल-पुथल चल रही थी कि एक परिचित कर्मी मिल गए। अरे आप यहां कहां? वे दूसरा सवाल दागते, इससे पहले मैंने ही कुशल क्षेम पूछ लिया। क्या करें साहब, ट्रेनें चलानी हैं तो आना ही पड़ेगा। अदृश्य शत्रु से डर तो बहुत लग रहा, परंतु लोग समझ नहीं रहे हैं। धीरे-धीरे स्टेशन की रौनक बढ़ रही थी। संक्रमण फैलने की यही स्थिति रही, तो स्टेशन पर फिर से सन्नाटा छा जाएगा। अभी भी वक्त है, लोग संभल जाएं... यह कहते हुए वह आगे बढ़ गए।
बढ़ेगी तीखी पकौड़ी की पूछ
भला स्पेशल ट्रेनें छोटे स्टेशनों पर क्यों रुकें। बात सही भी है, लेकिन छोटो का भी अपना अस्तित्व होता है। बात में दम भी है। भले ही आज कैंट स्टेशन पर स्पेशल ट्रेनें नहीं रुक रहीं, लेकिन एक समय था जब गोदान, पूर्वांचल, दादर और इंटरसिटी कैंट स्टेशन को सलामी ठोके बिना आगे नहीं बढ़ती थीं। समय से पहुंची ट्रेनों को भी काफी देर तक रुकना ही पड़ता था। छात्र, व्यवसायी, नौकरीपेशा और मरीज स्टेशन की पकौड़ी खाना नहीं भूलते थे। तीखी पकौड़ी के साथ पीने के लिए बोतल का पानी भी खरीदना पड़ता था। टोंटियों में तो पानी आता नहीं था। खैर, अब कैंट रेलवे स्टेशन संवर रहा है। सैटेलाइट टर्मिनल बनाने के लिए तेजी से निर्माण कार्य चल रहे हैं। अब उसे भी गुमान होने लगा है। कब तक हमें नजरअंदाज कर पाएंगे। जैसे ही नियमित ट्रेनें चलने लगेंगी, हमारी रौनक और पकौड़ी की पूछ फिर से बढ़ेगी।
हे भगवान, यहां तो अपने ही मार डालेंगे
लोग कहते हैं, गैर भले ही दगा दे जाएं, अपने तो अपने होते हैं, लेकिन यहां तो कहावत उल्टी पड़ गई है। संक्रमण काल में रेलकर्मी इस विश्वास के साथ मालगाडिय़ों, श्रमिक और स्पेशल ट्रेनों को चलाने में दिन-रात एक किए रहे कि रेलवे का अस्पताल और चिकित्सक हैं न। हालांकि, कार्य के दौरान वे पूरी एहतियात बरतते रहे, लेकिन सावधानियों के बीच जब महामारी ने रेलकर्मियों को भी आगोश में लेना शुरू किया, तो रेलवे प्रशासन ने भी हाथ खड़े कर लिए। जल्द ठीक होकर अपने परिवार के बीच लौट आएंगे, इस आस के साथ रेलवे अस्पताल पहुंचे रेलकर्मी अब अपनों को ही कोस रहे हैं। आइसोलेशन वार्ड रहने लायक नहीं है। हर तरफ गंदगी। समय से दवा न भोजन। रेलवे का कहना है, जिला अस्पताल निगरानी कर रहा है। जिला अस्पताल में कोई सुनवाई ही नहीं है। अस्पताल में भर्ती रेलकर्मी दो पाटों के बीच पिस रहे हैं।