कसौटी - साहब का दर्द न जाने कोय Gorakhpur News
पढ़ें गोरखपुर से उमेश पाठक का साप्ताहिक कॉलम कसौटी..
गोरखपुर, जेएनएन। शहर में विकास की रूपरेखा तय करने वाले विभाग में इन दिनों एक साहब काफी दुखी हैं। तेजतर्रार कार्यशैली के कारण चर्चा में रहने वाले इन साहब से धीरे-धीरे प्रमुख जिम्मेदारियां दूर होती जा रही हैं। कुछ समय पहले तक शहर में अव्यवस्थित विकास पर बुल्डोजर चलाना हो तो इन्हीं साहब को याद किया जाता था, लेकिन समय बीतने के साथ अचानक जिम्मेदारियां कम होने लगी हैं। कभी उनके पास पूरा शहर था, अब एक तिहाई हिस्सा है। महत्वपूर्ण परियोजनाओं में उनकी राय जरूर ली जाती थी, पर वह भी समय बीत गया। आमतौर पर साहब इन बातों पर खुलते नहीं, लेकिन दुखती रग पर जब कोई हाथ रखता है, तो दर्द छलक पड़ता है। उन्हें जिम्मेदारियां कम होने का उतना दुख नहीं, जितना किसी जूनियर को आगे बढ़ाने का है। अधीनस्थों में उनका यह दुख चर्चा में है, लेकिन विभाग का कोई जिम्मेदार उनका दर्द नहीं समझ पा रहा।
सहमति को अनुमति मान फंसे
गोरखपुर के जुहू चौपाटी की पहचान रखने वाले स्थल पर रोमांच की सुविधा उपलब्ध कराने वालों को करारा झटका लगा है। इससे उनका व्यापार तो प्रभावित हुआ ही विश्वास भी टूट गया। शहर के विकास की रूपरेखा तय करने वाले विभाग ने इस पिकनिक स्पॉट पर आने वाले लोगों के लिए तमाम सुविधाएं मुहैया कराने की ठानी थी। मुखिया की नजर में नंबर बढ़े, इसलिए कानूनी प्रक्रियाएं पूरी किए बिना ही रोमांच की सुविधा शुरू करने की सहमति दे दी गई। संचालकों को भी लगा कि विभाग के सबसे बड़े साहब ने 'हांÓ में सिर हिलाया है, तो उन्हें अनुमति मिल गई है। इस सहमति को अनुमति समझना उनकी बड़ी भूल थी। पुराने साहब यहां से जा चुके हैं और एक घटना होते ही नए साहबों के सिर 'हांÓ की बजाय 'नÓ में हिलने लगे। इसी भ्रम में फंसकर हाल ही में एक और संचालक को जलालत झेलनी पड़ी है।
कायम है नेता जी का जलवा
उनकी पार्टी सत्ता में भले न हो लेकिन शहर में विकास की रूपरेखा बनाने वाले विभाग में मूंछ वाले नेताजी का जलवा कायम है। जलवा भी ऐसा कि सत्ता वाली पार्टी के बड़े-बड़े नेताओं की सिफारिश भी उनके आगे फीकी पड़ जाती है। एक वाकये से यह बात साबित भी हो चुकी है। विभाग की एक बड़ी परियोजना के बगल में मूंछ वाले नेताजी का घर है। उनके बगल ही एक और मकान बनने लगा। नेताजी को पड़ोसी का मकान बनना अ'छा नहीं लगा, सो शिकायत लेकर वह विभाग में पहुंच गए। इसका असर भी हुआ और निर्माण कार्य रोक दिया गया। मकान बनवाने वाले की भी पहुंच सत्ता वाली पार्टी में ऊपर तक है। उनके पक्ष से भी भारी भरकम सिफारिशों का दौर शुरू हो गया। इसको लेकर विभाग के एक साहब नाराज हो गए। साहब की इस नाराजगी से मूंछ वाले नेताजी का प्रभाव और बढ़ गया है।
याद आ रहे एक दिन वाले साहब
खेल के साथ शिक्षा उपलब्ध कराने वाले एक संस्थान में आजकल एक दिन वाले साहब खूब याद आ रहे हैं। इस तरह के प्रदेश में मात्र तीन संस्थान हैं। करीब आठ साल पहले यहां अतिरिक्त प्रभार में एक साहब आए थे। छोटे कार्यकाल में ही कई कमाल उनके नाम दर्ज हैं। एक कमाल का साइड इफेक्ट अब सामने आया है। जिसका खामियाजा ब'चे भुगत रहे हैं। साहब को इतनी तेजी थी कि बिना औपचारिकताएं पूरी किए ही निर्माण एजेंसी की ओर से तैयार भवन को संस्थान की संपत्ति में शामिल कर लिया। धीरे-धीरे उसकी कमियां उजागर होने लगीं और एक दिन भवन की छत का निचला हिस्सा जमीन पर आ गया। अब यह भवन बंद रहता है। किसी जिम्मेदार से पूछने पर एक दिन वाले साहब को जिम्मेदार ठहराया जाता है। संस्था के लोगों में चर्चा है कि एक दिन वाले साहब तेजी न दिखाते तो यह दशा न होती।