मुसाफिर हूं यारों, बड़े साहब के दर्द ने खोली पोल Gorakhpur News
पढ़ें गोरखपुर से प्रेम नारायण द्विवेदी का साप्ताहिम कॉलम-मुसाफिर हूं यारों...
गोरखपुर, जेएनएन। रेलवे में आजकल उच्च स्तरीय यात्री सुविधाओं का जुमला खूब उछल रहा है। लेकिन बड़े साहब के दर्द ने तो इन सुविधाओं की पोल ही खोल दी। रेलवे बोर्ड के बड़े साहब पिछले दिनों पूर्वोत्तर रेलवे का निरीक्षण (भ्रमण का प्रयोग भी गलत नहीं होगा) करने निकले थे। इधर से गोरखपुर जोन की टीम भी वाराणसी पहुंच गई। बड़े साहब को जैसा दिखाया जा रहा था वैसा सबकुछ अच्छा दिखता गया। वाराणसी और छपरा स्टेशनों का निरीक्षण करते हुए पूरी टीम गोरखपुर पहुंची। इसके बाद बड़े साहब लखनऊ के रास्ते दिल्ली के लिए निकल गए। लंबी यात्रा के बाद सिर में दर्द स्वाभाविक था। लखनऊ में अधिकारियों तक भी इस दर्द की पीड़ा पहुंची। लेकिन ट्रेन कानपुर से आगे निकल गई, बड़े साहब को कहीं दवा नहीं मिली। संयोग अच्छा रहा कि उनका दर्द गोरखपुर स्टेशन पर नहीं उभरा। जंक्शन पर आज तक दवा का स्टाल नहीं खुल सका है।
अब तो लगानी ही पड़ेगी हाजिरी
रेलवे की वर्तमान स्थिति पर बातचीत के दौरान यांत्रिक कारखाने के एक कर्मचारी की पीड़ा उभरकर सामने आ ही गई। उनका कहना था, पहले का ही जमाना ठीक था। कारखाने के बड़े बाबू से मामला सेट था। महीने में एक से दो बार घूमते-फिरते कभी चले जाते थे। हाजिरी भी लग जाती थी। बड़े बाबू भी खुश और हमारा अपना वाला धंधा भी महफूज। इस कंप्यूटर युग ने तो जीना मुहाल कर दिया है। पता नहीं ऑनलाइन हाजिरी जैसी बला कहां से आ गई है। हमारे अच्छे दिन को न जाने किसकी नजर लग गई है। सुबह नौ बजे से पहले ही गेट पर पहुंचना पड़ रहा है। लाइन में खड़े होकर बायोमीट्रिक मशीन में अंगुली करनी पड़ रही है। तब जाकर हाजिरी मानी जा रही है। अब तो विभागीय दफ्तरों के कर्मचारियों के भी होश उड़ गए हैं। पता नहीं कब कार्यालयों में लगी बायोमीट्रिक मशीन शुरू हो जाएं।
नए साहब का जाग उठा इगो
इधर, इगो (इसे आप अहंकार या घमंड न कहकर अपना उच्च विचार भी समझ सकते हैं) ने कुछ ज्यादा ही पांव पसारना शुरू कर दिया है। वाणिज्य विभाग के ही एक नए वाले साहब को यह नया वाला रोग लग गया। दिल्ली और मुंबई जाने वाले यात्रियों की भीड़ बढ़ी तो ट्रेनों में बर्थ को लेकर आरक्षित कोटे के लिए भी मारामारी शुरू हो गई। पैरवी बढ़ी तो नए वाले साहब को लगा कि सभी कोटे मेरे सामने से आवंटित होते हैं और पूछ अन्य विभागों के अधिकारी व जनसंपर्क विभाग की हो रही है। उन्होंने विभाग के बड़े साहब से बोर्ड के नियमों का हवाला देते हुए एक नया फरमान जारी करा दिया। विभाग के उच्च अधिकारी के हस्ताक्षर से ही बर्थ जारी होगी। इस पर खूब चर्चा हुई। मामला सबसे बड़े अधिकारी तक पहुंचा तो बीच वाला रास्ता निकला। लेकिन नए वाले साहब आज भी अड़े हुए हैं।
खेमों में बंट गई भारतीय रेल
भारतीय रेल भी दो खेमों में बंट गई हैं। आम बजट के बाद तो दोनों खेमों में खींचतान भी बढ़ गई। एक ने तत्काल विरोध शुरू कर दिया तो दूसरा खेमा समर्थन में उतर आया। 150 नई प्राइवेट ट्रेनों की घोषणा होने के साथ ही रेलवे खेमा का दर्द बाहर आने लगा। एक स्वर से विरोध शुरू हो गया। मोर्चा संभाल रहे लोग कहने लगे, हम दिल्ली तक आंदोलन करेंगे। चुप बैठने वाले नहीं हैं। पटरी हमारी और मजे दूसरे लोग लेंगे। ऐसा हरगिज नहीं होने दिया जाएगा। दूसरा कॉरपोरेट खेमा खुश हो उठा। इधर के लोग कहने लगे, आने वाले दिन यात्रियों के लिए भी अच्छे होंगे। अब तो पैसेंजर और डेमू ट्रेनें भी प्राइवेट हो जाएंगी। लखनऊ-दिल्ली तेजस की तरह अन्य प्राइवेट ट्रेनें समय से चलने लगेंगी। यात्रियों के लिए यात्रा और घर में चोरी आदि का बीमा बोनस होगा। हम तो प्राइवेट ट्रेनों का समर्थन करते हैं।