बिंब-प्रतिबिंब - नेताजी को तो बस नाम चाहिए Gorakhpur News
पढ़े गोरखपुर से डॉ. राकेश राय का कॉलम - बिंब-प्रतिबिंब..
गोरखपुर, जेएनएन। पुण्यतिथि हो, जयंती हो, रैली हो या फिर बैठक, देश के सबसे शक्तिशाली राजनीतिक दल के ज्यादातर स्थानीय नेताओं की एक बड़ी चिंता होती है, किसी तरह अखबार में नाम छप जाए। इसके लिए जिद्दोजहद हर आयोजन के बाद देखी जा सकती है। कई बार तो स्थिति यह हो जाती है कि आयोजन शुरू होने से पहले ही नेतागण इसे लेकर मीडिया प्रभारी की घेरेबंदी शुरू कर देते हैं। यह भी नहीं सोचते कि आयोजन संपन्न होगा भी या नहीं। उन्हें तो हर हाल में अखबार में अपना नाम चाहिए। स्थिति तब ज्यादा विकट हो जाती है, जब आयोजन बड़ा होता है और नाम छपने की ख्वाहिश रखने वाले नेताओं की फेहरिस्त लंबी। ऐसे में अगले दिन के अखबार में सभी का नाम न छप पाना तय होता है, साथ ही मीडिया प्रभारी की दुर्दशा भी। बीते दिनों हुई एक रैली में इसकी बानगी एक बार फिर देखने को मिली।
बड़ा फोटो तो बनता है
राजनीतिक आयोजनों या फिर त्योहारों के दौरान पूरा शहर बड़ी-बड़ी होर्डिंग से पट जाता है। इतनी सारी होर्डिंग कोई एक व्यक्ति लगवाता है या फिर राजनीतिक दल? अंतर्मन में उठ रहे इस सवाल का जवाब जानना है तो आपको पोस्टर के नीचे दाहिनी ओर के हिस्से पर नजर डालनी होगी। बिला वजह उस हिस्से में जरूरत से ज्यादा बड़ा जिसका फोटो लगा हो, समझ लीजिए उस होर्डिंग का खर्च उसी महानुभाव ने उठाया है। यह कितना उचित या अनुचित है, इसे लेकर जब वर्तमान में देश के सबसे शक्तिशाली दल के एक पदाधिकारी से बात हुई तो इसपर उनका जवाब था कि जिसने पैसा खर्च किया है, उसका इतना हक तो बनता ही है भाई। पैसा खर्च करने वाले का फोटो होर्डिंग पर दल के मुखिया से भी बड़ा लगना ठीक है? इसका जवाब देने की बजाय नेताजी बिफर पड़े, बोले- जब इतना देखने लगेंगे तो कोई कमवे नहीं होगा।
पहले एक नाटक खत्म हो
बड़ी उम्मीद के साथ बीते दिनों रामगढ़ ताल के सामने तीन दशक पुराने खुले आकाश तले बने रंगमंच को करोड़ रुपये से अधिक खर्च करके चमका तो दिया गया, लेकिन वहां न कोई रंगकर्म होता है और न ही कोई रंगकर्मी फटकता है। वजह अजीब है, कर्मचारी की कमी। इस वजह से चमकाने वाले महकमे से गीत-संगीत का महकमा न तो उसे अपने हाथ में ले रहा है और न ही कलाकारों को मंच मिलने की स्थिति बन पा रही है। खुले आसमान तले रंगकर्म की ख्वाहिश को आगे बढ़ाने की उम्मीद के साथ एक रंगकर्मी जब रंगमंच के शुरू होने की संभावना तलाशते वहां पहुंचे तो शुरू न होने का कारण जानकर व्यवस्था को कोसने लगे। कोसने के दौरान उनकी जो प्रतिक्रिया आई, वह कोई व्यथित कलाकार ही दे सकता है। तंज के लहजे में वह बोले- पहले एक नाटक खत्म हो, तब तो आएगा दूसरे नाटक का नंबर।
कौन बताएगा, जाना कहां है
मनोरंजन या फुर्सत के क्षणों में यात्रा का माध्यम बनने वाला महकमा इन दिनों मशहूर स्थलों को चमकाने में जुटा है, जिससे उनके दीदार के लिए देश भर से लोग आ सकें। इसे लेकर संभावना तलाशने में भी वह कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा। महकमे के लोग इस पर माथापच्ची भी करते रहते हैं। लेकिन यात्रा पर आने वाले उन स्थानों तक पहुंचेंगे कैसे? इसे लेकर उनका वर्कआउट जीरो है। घूमने की उम्मीद के साथ रेलवे स्टेशन, बस स्टेशनों और एयरपोर्ट पहुंचने वाले लोगों को यह बताने का कोई इंतजाम महकमे की ओर से नहीं किया जा रहा कि लुत्फ उठाने के लिए उनके पास जिले में कौन-कौन से विकल्प हैं। रेलवे स्टेशन पर एक सेंटर तो बनाया गया है, लेकिन उसकी स्थिति सफेद हाथी जैसी है। सेंटर पर लटका ताला, उस ओर उम्मीद से आने वाले लोगों को न केवल निराश कर रहा है बल्कि चिढ़ा भी रहा है।