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मौसम का मिजाज बदला, फाग के संग होली के रंग Gorakhpur News

होली गीतों की परंपरा कितनी समृद्ध है इसका अंदाजा होली के प्रति साहित्यकारों के प्रेम से लगाया जा सकता है। दरअसल शुरू से ही होली साहित्यकारों का प्रिय विषय रही है।

By Satish ShuklaEdited By: Published: Mon, 09 Mar 2020 10:04 AM (IST)Updated: Mon, 09 Mar 2020 10:04 AM (IST)
मौसम का मिजाज बदला, फाग के संग होली के रंग Gorakhpur News
मौसम का मिजाज बदला, फाग के संग होली के रंग Gorakhpur News

गोरखपुर, जेएनएन। मौसम का बदला मिजाज और  फागुन के दस्तक का अहसास दोनों को एक-दूसरे से अलग नहीं हैं, इससे शायद ही किसी की नाइत्तेफाकी होगी। चूंकि मिजाज और अहसास की यह जुगलबंदी चलने लगी है, सो शुरू हो गई है रंगों के पर्व होली की तैयारी भी। इस दौरान पर्व से जुड़े संस्कारों की चर्चा न हो, ऐसा कैसे संभव हो सकता है। वह भी होली जैसा पर्व, जिसमें संस्कारों की एक लंबी, सशक्त और स्थापित परंपरा हो। होली से जुड़े संस्कारों का जैसे ही जिक्र शुरू होता है तो सबसे पहले याद आते हैं होली गीत। यह गीत सामान्य गीतों की तरह नहीं होते, इसमें परंपरा और संस्कार को लेकर चलने की अद्भुत क्षमता होती है। अपनी इसी क्षमता से वह अलग हो जाते हैं अन्य गीतों से। भोजपुरी साहित्य में तो इन होली गीतों की भूमिका उसमें रंग भरने की है। ओलारा, कबीरा, जोगीरा, चौताल, जिनकी चर्चा से ही मन मगन हो जाता है तो उसे सुनने के बाद शरीर झूम न उठे, ऐसा हो ही नहीं सकता।

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समृद्ध है होली गीतों की परंपरा

होली गीतों की परंपरा कितनी समृद्ध है, इसका अंदाजा होली के प्रति साहित्यकारों के प्रेम से लगाया जा सकता है। दरअसल शुरू से ही होली साहित्यकारों का प्रिय विषय रही है। यहां तक कि कबीर जैसे निर्गुण साधक, जो हमेशा वर्जनाओं के लिए जीये, वह भी कबीरा के साथ होली के रंग में रंगे गए। नाथ योगी गोरक्षनाथ भी पूर्वांचल के बहुत से होली गीतों के नायक है। होली का त्योहार आते ही ऐसे गीत चौक-चौराहों और मंचों पर गूंजने लगते हैं।

ऋतुओं से जुड़े पर्वो की परंपरा की होली महत्वपूर्ण कड़ी 

साहित्यकार प्रो. रामदेव शुक्ल बताते हैं कि ऋतुओं से जुड़े पर्वो की परंपरा की होली एक महत्वपूर्ण कड़ी है। ऋतु परिवर्तन के इस संधिकाल में मनुष्य ही नहीं, पेड़-पौधे भी नयी चेतना का अहसास करते है। फिर भला साहित्यकार इससे कैसे अछूता रह सकता है। लिहाजा होली साहित्य की एक विधा विकसित हो गई, जो अब इस पर्व का संस्कार बन गई है। आदिकाल में श्रृंगार कवि विद्यापति होली का काव्य चित्र खींचते नजर आते हैं तो मध्यकाल में भक्त कवियों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया है। राम भक्तों ने राम को तो कृष्ण भक्तों ने कृष्ण को केंद्र में रखकर होली के उल्लास को शब्दों में गढ़ा है। 'आज बिरज में होरी रे रसिया.. ब्रज में गाया जाता है तो 'आज अवध में होरी रे रसिया.. से अवध की होली में जान आती है। साहित्यकार प्रो. अनंत मिश्र का मानना है कि ऋतु परिवर्तन का साक्षी यह पर्व जीवन में परिवर्तन की मांग करता है। यह मांग उत्तेजना की वजह बनती है। और इस उत्तेजना से मर्यादा को बचाने के लिए ही काव्यकर्म सामने आता है। यहीं से शुरू होती है सृजनात्मकता, जिससे होली गीतों की लंबी परंपरा विकसित हुई है। सृजन का यह सिलसिला थमा नहीं बल्कि आज भी अनवरत जारी है।

गाए नहीं जीये जाते हैं होली गीत

लोक गायक राकेश श्रीवास्तव का कहना है कि मशहूर कवयित्री और मेरी मां मैनावती देवी ने न केवल बहुत से होली गीतों को गाया बल्कि रचा भी। ऐसे में मैने इसकी गहराइयों को बचपन से महसूस किया और उनकी परंपरा को पूरी शिद्दत से आगे बढ़ा रहा हूं। दरअसल यह गीत नहीं जिंदगी हैं, जो सिर्फ गाए नहीं बल्कि जीये जाते हैं। यही वजह है कि 'चैत के टूटल मन फागुन में जोड़ दे... जबले समता के  रंग ना घोराई फगुनवा में रंग नाहीं आई..जैसे होली गीत फागुन के दस्तक के साथ ही खुद-ब-खुद गले से फूटने लगते है और इसके साथ ही चढऩे लगता है होली का सुरूर। कहने का मतलब सुरूर को चढ़ाने में होली गीतों की बड़ी भूमिका होती है। तभी तो होली की आवक के साथ गीतों का रंग भी चटख होने लगता है। सम्मत जलने के बाद लोग चैती-फाग गाते हुए घरों को लौटते हैं, फिर शुरू होता है कबीरा, जोगीरा, धमार, चौताल, चहका, बसवारा का सिलसिला, जो होली में पूरे दिन चलता है। झाल और करताल जैसे साज के बीच होली के मस्ती भरे गीत पर्व के अहसास को आनंद की चरम ऊंचाईयों तक ले जाते हैं।

अहसास में बसे हैं होली के गीत

लोक गायिका  उर्मिला शुक्ला के अनुसार फाग,चौताल और झाल की जुगलबंदी है होली। कबीरा और जोगीरा की शालीनता भरी ठिठोली है होली। इन्हीं को पिरो कर तैयार होते हैं होली के गीत। यह गीत पर्व की पहचान तो हैं ही, श्रृंगार का भी। पांच दशक पहले होली की इस पहचान को मैंने शिद्दत से अपनाया और उसके श्रृंगार की हर संभव कोशिश करती रही। अस्सी के दशक में जब पहली बार होली गीतों के  साथ लोक गायकी के क्षेत्र में कदम रखा तो ये गीत लोक संस्कृति में रचे बसे थे। दरअसल वह अहसासों के  गीत थे। होली खेले सखी री होली खेले.., रंग डारो ना लाल चुनर भीजे..जैसे रसीले होली गीतों को सुन हर व्यक्ति खुद को उससे जुड़ा पाता था। पूर्वांचल के सभी मंचों से मैंने ऐसे सैकड़ों होली गीतों से इस त्योहार की परंपरा को संस्कारों से जोड़ा है। खुशी इस बात की है कि नई पीढ़ी भी इन संस्कार गीतों के महत्व को समझ रही है और आगे बढ़ा रही है। अपील सिर्फ इतनी है कि उत्साह के साथ परंपरा की शालीनता भी कायम रहे। 


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