Jammu Kashmir and Article 370: कश्मीरी नहीं, 370 हटने का दर्द सियासत दां को है
जिस अनुच्छेद 370 और 35-ए पर विपक्षी पार्टियां ही नहीं पाकिस्तान और चीन भी राजनीति करते हैैं उसके हटने का दर्द कश्मीरियों को नहीं है उल्टा वह तो खुश हैैं। कश्मीर से गोरखपुर गर्म कपड़ों का व्यापार करने आए कश्मीरियों ने अपनी बात कुछ यूं बयां की-
गोरखपुर, रजनीश त्रिपाठी। 'फजा आदमीयत की संवरने ही नहीं देते सियासत दां दिलों के जख्म भरने ही नहीं देते' जम्मू-कश्मीर के हालात पर चरण सिंह बशर का यह शेर मौजूं हो जाता है, जब कश्मीरी युवा कहते हैैं कि अनुच्छेद 370 हटने का दर्द कश्मीरियों को नहीं बल्कि सियासतदां को है। उन्हें है, जिन्होंने इसी सियासत से लंदन और पेरिस में अपने महल खड़े कर लिये, अपनी तिजोरी भर ली। जिस अनुच्छेद 370 और 35-ए पर विपक्षी पार्टियां ही नहीं पाकिस्तान और चीन भी राजनीति करते हैैं, उसके हटने का दर्द कश्मीरियों को नहीं है, उल्टा वह तो खुश हैैं।
कोरोना संक्रमण के बीच कमाई के लिए निकले कश्मीरियों ने गोरखपुर में भी
गोरखपुर के टाउनहाल में ग्राहकों को शाल दिखा रहे इस्लामाबाद से आए बीकाम पास मोहम्मद आरिफ, उनके साथी अनंतनाग के रमीज अहमद खांडे से बात शुरू की गई तो लगा किसी ने उनकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। आरिफ कहते हैैं, मैैं यहां हूं और पिता बशीर अहमद कोलकाता में। अगर कश्मीर में सुविधा होती तो हम खानाबदोश क्यों होते। बीकाम पास करने के बाद पीठ पर बोझा रखकर साल में छह महीने फेरी क्यों लगाते। पांच साल पहले तक पता ही नहीं चलता था कि सरकार भी होती है। सरकारी स्कूल-अस्पताल कहने भर के थे। इसीलिए हम लोगों ने आज तक वोट नहीं डाला। घाटी में इंटरनेट नहीं है। टू-जी नेटवर्क ऐसा कि बात भी नहीं हो पाती। कोरोना काल में देशभर के बच्चे आनलाइन पढ़ रहे थे और कश्मीरी बैठे थे। रमीज ने बात काटते हुए कहा कि योजनाएं बेशक बहुत बनीं, लेकिन फायदा नहीं मिल पा रहा था। अब माहौल बदला है। स्कूल, अस्पताल, सड़क का निर्माण शुरू हुआ तो लगा हालात अच्छे हो रहे हैैं।
भाता है मैदानी इलाकों में जीना
अनंतनाग के दुरु से आए मुजफ्फर अहमद जरगर कहते हैैं कि मैदानी इलाकों की आजादी भरी जिंदगी उसकी खासियत है। हमें तो कश्मीर के बारे में बनी नकारात्मक छवि ही परेशान कर देती है। यहां रात दस बजे तक घूम लो, कोई नहीं बोलता। घाटी में शाम छह बजे के बाद सड़क पर मिल गए तो आर्मी-पुलिस इतनी पूछताछ करती है कि न निकलने में ही भलाई लगती है। आधार कार्ड पास न हो तो न
जाने क्या हो। इसीलिए तो मां-बाप नहीं चाहते कि जवान बेटा कश्मीर में रहे। चाहते हैैं कि वह बाहर जाकर कमाये। इससे न मुजाहिदों से खतरा रहेगा न ही किसी बवाल में पड़ेंगे।
व्यवस्था होती तो खानाबदोश न होते
रमीज कहते हैैं कि श्रीनगर घाटी से अक्टूबर-नवंबर में हजारों सौदागर गरम कपड़े लेकर दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, मध्यप्रदेश तक जाते हैैं। गोरखपुर के टाउनहाल में ही बीस लोगों की टोली रुकी है। नवंबर में आए थे, मार्च में लौटेंगे। हमारे हुनर को बाजार मिलता तो क्या हम खानाबदोश होते।