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अज्ञेय के मौन में भी था अद्भुत सामर्थ्‍य : प्रो. अरविंद त्रिपाठी Gorakhpur News

प्राय कुछ कहने की बजाय वह अपने मौन या शारीरिक भाषा से ही सामने वाले को चुप करा देने का सामर्थ्‍य रखते थे। शायद इसी असामान्य व्यक्तित्व के चलते लेखक उनसे मिलने से घबराते थे।

By Satish ShuklaEdited By: Published: Sat, 07 Mar 2020 07:30 PM (IST)Updated: Sat, 07 Mar 2020 07:30 PM (IST)
अज्ञेय के मौन में भी था अद्भुत सामर्थ्‍य : प्रो. अरविंद त्रिपाठी Gorakhpur News
अज्ञेय के मौन में भी था अद्भुत सामर्थ्‍य : प्रो. अरविंद त्रिपाठी Gorakhpur News

गोरखपुर, जेएनएन। तारीख तो ठीक से याद नहीं मगर बात सन् 1980 या 81 की है। शाम के वक्त सूरज लगभग डूब चुका था, जब पहली बार मेरी देखा-देखी सच्चिदानंद हीरानन्द वात्सायन 'अज्ञेय से हुई थी। किशोर उम्र के युवा के भीतर उठी उमंग लिए मैं हॉस्टल से साइकिल लेकर सिंचाई विभाग के डाक बंगला पहुंचा। साइकिल खड़ी कर पहले लक्ष्मीकांत वर्मा को इसके बाद 'अज्ञेय को प्रणाम किया। 'यह लड़का नई कविता पर रिसर्च कर रहा है। लक्ष्मीकांत जी ने रिसर्च स्कॉलर के रूप में मेरा यही परिचय अज्ञेय से कराया था। अज्ञेय ने धीमे से पूछा कि क्या लिखते हैं? मैने कहा कविता। बड़े शालीन लहजे में उन्होंने कहा 'बैठिये। नई कविता पर बात करने की मेरी इच्‍छा तो बहुत थी पर डर भी उतना ही लग रहा था। खैर हिम्मत जुटाई और पूछ लिया- अज्ञेय जी, मैं नई कविता के प्रसंग में आपके सामने कुछ जिज्ञासा रखना चाहता हूं। उन्होंने देखा तो मैं बोलने लगा, आपने प्रयोगवाद के बाद दूसरा सप्तक निकलने के दौरान 'नई कविता नाम पर पहले आंशिक असहमति प्रकट की। पर बाद में अपने साक्षात्कार में कहा कि आज की कविता को 'नई कविता से अभिहित किया जाता है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। आप नई कविता आंदोलन के पुरोधा माने जाते हैं फिर भी आपने उस दौर में नई कविता के नाम पर आपत्ति क्यों की।

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इनकी मदद करें

मुझको गौर से सुनने के बाद लक्ष्मीकांत जी की ओर मुखातिब होते हुए उन्होंने कहा कि सवाल नई कविता के नामकरण का है, आपने नई कविता पर किताब लिखी है, बेहतर होगा। मेरी ओर से आप इनकी मदद करें। इसके बाद वह मेरी ओर मुड़े और कहा, देखिए मैं तो एक कवि हूं। लक्ष्मीकांत जी आपके परिचित हैं और नई कविता के भाष्यकार भी। मुझे उम्मीद है कि आपके प्रश्न का उत्तर ये भलीभांति दे सकेंगे।

यह इला जी हैं

उसी वक्त गेस्ट हाउस से एक सुंदर महिला निकलीं और वात्सायन जी के पास आकर लगभग आदेश के लहजे में बोलीं, चलना नहीं है क्या। लक्ष्मीकांत जी ने धीमे से बताया कि यह इला जी हैं। मैं समझ गया और जैसे ही अज्ञेय जी को उठकर प्रणाम किया वह आत्मीय होकर बोले, कभी दिल्ली आएं तो जरूर मिलें।

कुशीनगर में जन्मे हिन्दी के यशस्वी लेखक अज्ञेय के जन्मदिवस पर यह संस्मरण दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर अरविंद त्रिपाठी सुना रहे थे। अतीत की स्मृतियों पर उन्होंने जोर दिया तो पहली मुलाकात की हर बात याद आ गई। प्रो. त्रिपाठी बताते हैं कि अपने जीवन का अधिकांश समय प्रवास, विदेश यात्रा, दुर्गम जगहों पर व्यतीत करने की वजह से सामान्य जनजीवन में अज्ञेय शायद समावेशी नहीं बन सके थे। बाहरी समाज में उनका व्यक्ति पठार के धीरज जैसा प्रतीत होता है। प्राय: कुछ कहने की बजाय वह अपने मौन या शारीरिक भाषा से ही सामने वाले को चुप करा देने का सामर्थ्‍य रखते थे। शायद इसी असामान्य व्यक्तित्व के चलते नई पीढ़ी के अधिकांश लेखक उनसे मिलने से घबराते थे। यहां तक कि सामने पड़ते ही किसी तरह बच कर निकल जाते थे। 


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