छह सौ वर्ष पुराना है बुढिय़ा माई का इतिहास, ऐसी है यहां की मान्यता
गोरखपुर शहर से 10 किलोमीटर दूरबुढिय़ा माई का मंदिर पूर्वांचल के धरोहरों में शामिल है। यह लाठी का सहारा लेकर चलने वाली एक चमत्कारी श्वेत वस्त्रधारी वृद्धा के सम्मान में बनाया गया था।
गोरखपुर, जेएनएन। गोरखपुर शहर से 10 किलोमीटर दूर कुसम्ही जंगल में मौजूद बुढिय़ा माई का मंदिर पूर्वांचल के धरोहरों में शामिल है। इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यह लाठी का सहारा लेकर चलने वाली एक चमत्कारी श्वेत वस्त्रधारी वृद्धा के सम्मान में बनाया गया था।
मान्यता है कि पहले जंगल के उस क्षेत्र में थारू जाति के लोग रहते थे। वे जंगल में ही तीन पिंड बनाकर वनदेवी की पूजा करते थे। थारुओं को अक्सर पिंड के इर्द-गिर्द श्वेत वस्त्र में एक बूढ़ी महिला दिखाई देती थी, हालांकि वह कुछ ही पल में आंखों से ओझल भी हो जाती थी। मान्यता यह भी है कि वह महिला जिससे नाराज होती थी, उसका सर्वनाश तय था और जिससे खुश होती थी, उसकी हर मनोकामना पूरी हो जाती थी।
बुढिय़ा माई से जुड़े दो किस्से क्षेत्र में मशहूर हैं। पहला 600 साल पुराना है। इस किस्से के मुताबिक जंगल के बीच से होकर गुजरने वाले तुर्रा नाले पर बने काठ के पुल से एक बारात जा रही थी, जिसपर डांस पार्टी सवार थी। बुढिय़ा माई ने पुल पार करने से पहले डांस पार्टी से नृत्य दिखाने को कहा, लेकिन बाराती यह कहकर उपहास उड़ाते हुए आगे बढ़ गए कि देर हो रही है, लेकिन एक जोकर ने नृत्य दिखा दिया था। उसके बाद जैसे ही उस पुल पर बारातियों का वाहन पहुंचा, वह टूट गया। दूल्हा सहित बाराती नाले में डूबकर मर गए, लेकिन जिस जोकर ने नृत्य दिखाया था, वह बच गया। उसने गांव वालों को यह बात बतायी, तभी से यहां पूजा होने लगी।
दूसरा किस्सा मनोकामना पूर्ण करने से जुड़ा है। विजहरा गांव के निवासी जोखू सोखा की मौत के बाद परिजनों ने उन्हें तुर्रा नाले में प्रवाहित कर दिया। शव थारुओं की तीन पिंडी तक पहुंचा। बुढिय़ा माई अवतरित हुईं और उन्होंने जोखू को जिंदा कर दिया। जोखू ने उसके बाद वहीं पूजा शुरू कर दी और माई को जिस रूप में देखा था, उसी रूप में मूर्ति स्थापित कर मंदिर बनवा दिया। जंगल के बीच होने के बावजूद इस मंदिर में नवरात्र के दौरान मेले जैसा माहौल रहता है। इस धरोहर के संरक्षण को लेकर शासन भी गंभीर है। पर्यटन विभाग को इसके संरक्षण और सुंदरीकरण की जिम्मेदारी दी गई है।
संत इलाही बख्श के नाम पर बस गया इलाहीबाग
तारीख को लेकर तो संशय है, लेकिन शहर के बुद्धिजीवियों के मुताबिक यह वाकया 15 वीं शताब्दी के पूर्वाद्र्ध का है। उन दिनों जौनपुर में शर्की शासन था। साम्राज्य की कमान जब शर्की शासक इब्राहीम शाह के हाथ में थी तब उसे सूचना मिली कि गोरखपुर बदइंतजामी का शिकार हो गया है। यहां लूटपाट के मामले बढ़ गए हैं।
सूचना मिलते ही स्थिति पर नियंत्रण करने के लिए उसने अपने एक सरदार चीनी बख्श को कुछ घुड़सवार सैनिकों के साथ गोरखपुर भेजा। जब चीनी बख्श गोरखपुर आए तो उनके साथ ही उनके भाई इलाही बख्श भी आए, जो सूफी संत थे। चीनी बख्श आते ही व्यवस्था के नियंत्रण में लग गए, लेकिन इलाही बख्श ने अपनी प्रकृति के मुताबिक सूफी विचारधारा फैलाना शुरू किया। दोनों भाइयों ने अपना कार्यक्षेत्र और आशियाना उसी इलाके को बनाया, जिसे आज की तारीख में इलाहीबाग कहा जाता है।
उन दिनों वह इलाका जंगल के रूप में था। इलाही बख्श की संत प्रकृति व उनकी विचारधारा लोगों को भाने लगी और धीरे-धीरे उनकी शिष्य परंपरा का विस्तार होने लगा। लोग जब उनसे जुडऩे लगे तो उनके आशियाने के इर्द-गिर्द बसने का सिलसिला भी शुरू हो गया। समय के साथ यह बसावट इस रूप में बढ़ गई कि उसने एक मोहल्ले का रूप ले लिया। चूंकि अपने बसने के दौरान इलाही बख्श ने उस इलाके को एक बागीचे का रूप दे दिया था, सो वह इलाका इलाही के बाग के रूप में जाना जाने लगा। समय के साथ इसमें से 'केÓ शब्द लुप्त हो गया और मोहल्ले को इलाहीबाग का नाम मिल गया।
इस वाकये की जानकारी देते हुए उस इलाके के पुराने वाशिंदे और क्षेत्र के इतिहास के जानकार डॉ. काजी अब्दुर्रहमान बताते हैं कि इलाहीबाग क्षेत्र में मौजूद चीनी बख्श और इलाही बख्श की मजार इस वाकये की गवाह है। इलाहीबाग आज शहर के पुराने मोहल्लों में शुमार है। घनी बस्ती और बेतरतीब बसावट इस बात की तस्दीक है कि यह मोहल्ला जरूरत के मुताबिक धीरे-धीरे बसा।