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बहुत याद आ रहे अदब की दुनिया के अमर शायर रघुपति सहाय उर्फ फिराक गोरखपुरी

समकालीन कुछ लोग उन्हें उनके अति आत्मविश्वास के लिए याद करते हैं तो कुछ बेलौस हाजिर जवाबी के लिए। मगर इन सबके बीच एक बात कॉमन थी, उनके अशआर सबके बीच हमेशा तवज्जो पाते रहे।

By Ashish MishraEdited By: Published: Tue, 28 Aug 2018 12:37 PM (IST)Updated: Tue, 28 Aug 2018 12:41 PM (IST)
बहुत याद आ रहे अदब की दुनिया के अमर शायर रघुपति सहाय उर्फ फिराक गोरखपुरी
बहुत याद आ रहे अदब की दुनिया के अमर शायर रघुपति सहाय उर्फ फिराक गोरखपुरी

गोरखपुर [डा. राकेश राय]। उर्दू अदब की दुनिया में गोरखपुर शहर को जिन नामों की बदौलत इज्जत और शोहरत मिली, फिराक का नाम उनमें सबसे ऊपर है। अपने तखल्लुस के आगे गोरखपुरी जोड़कर उन्होंने गोरखपुर को अदब की दुनिया में अमर कर दिया। समकालीन कुछ लोग उन्हें उनके अति आत्मविश्वास के लिए याद करते हैं तो कुछ बेलौस हाजिर जवाबी के लिए। मगर इन सबके बीच एक बात कॉमन थी, उनके अशआर सबके बीच हमेशा तवज्जो पाते रहे। 

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28 अगस्त, 1896 को जन्मे फिराक तबीयत से बागी थे मगर उनक एक पक्ष नेकदिली और जिंदादिली भी था, जिसकी तस्दीक उनकी शायरी में बिना किसी प्रयास के की जा सकती है। यही वजह है कि वह उर्दू शायरी के ऐसे अजीम शायर के रूप में मशहूर हुए, जिन्होंने उर्दू गजल के क्लासिकीय मिजाज में बिना किसी छेड़छाड़ के नए लहजे की शायरी कर मिसाल पेश की। मिशअल शोलये सास, गुले नगमा, धरती की करवट, चिरांगा, पिछली रात, शेरिस्तान, शब नमिस्तान, गजलीस्तान, हजार दास्तान जैसे शेरों के संग्रह लोगों के जेहन में आज भी अपना वजूद बखूबी बनाए हुए है।

शायरी का अंदाज, उनका चुटकी बजाकर सिगरेट झाडऩा, बड़ी-बड़ी आंखें फैलाकर अपनी बातों को पूरी मजबूती से रखना, वड््र्सवर्थ को पढ़ते-पढ़ते शायरी करने लगना, सबकुछ हर किसी के लिए अनूठा था। बइठकी और आयोजनों में अपने खास अंदाज में उनकी शिरकत उस दौर के लोगों को शायद ही कभी भूल सकती है। कभी वह दार्शनिक दिखे, तो कभी खालिस शायर, कई बार देश के लिए सोचने वाले एक गंभीर चिंतक भी। तीन मार्च, 1982 को उनका निधन हो गया।

ऐसे मिला 'फिराक तखल्लुस

साहित्यकार रवींद्र श्रीवास्तव 'जुगानी बताते हैं कि अगस्त, 1916 में जब मुंशी प्रेमचंद गोरखपुर आए तो फिराक साहब उनसे अक्सर मिला करते थे। उन्हीं दिनों एक पत्रिका प्रेमचंद के पास आई, जिसमें उर्दू के मशहूर लेखक नासिर अली 'फिराक का नाम प्रकाशित था। किताब फिराक के हाथ लगी और उन्हें नासिर के नाम में 'फिराक शब्द भा गया। उन्होंने उसे तखल्लुस बनाने का फैसला कर लिया। इस तरह रघुपति सहाय के साथ 'फिराक जुड़ गया।

मिले थे कई सम्मान

साहित्य व शिक्षा के क्षेत्र में 1968 में भारत सरकार ने पदृमभूषण से अलंकृत किया। गुल-ए-नगमा के लिए साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार। 1970 में साहित्य अकादमी के सदस्य भी नामित हुए।


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