मनोवैज्ञानिक ने कहा-परीक्षा के प्राप्तांक बच्चे की प्रतिभा का मानक नहीं
कोई एक परीक्षा किसी बच्चे की योग्यताक्षमता और जिंदगी की उपलब्धि को परिभाषित और निर्धारित नहीं कर सकती।
By Edited By: Published: Tue, 14 May 2019 08:12 AM (IST)Updated: Tue, 14 May 2019 12:47 PM (IST)
गोरखपुर, जेएनएन। कोई एक परीक्षा किसी बच्चे की योग्यता,क्षमता और जिंदगी की उपलब्धि को परिभाषित और निर्धारित नहीं कर सकती। आज के समय में 'नंबर गेम' ने बच्चों में जो डर पैदा किया है, वह उनके विकास में सबसे बड़ा रोड़ा है। अभिभावकों और शिक्षा नीति तय करने वाले नियंताओं को इस दिशा में गंभीरता से विचार करना होगा। अन्यथा, हम ऐसे डिग्री धारी युवाओं की फौज तैयार कर देंगे, जिनके अंकपत्रों में नंबर तो भरे होंगे, लेकिन उनकी बुद्धि रचनात्मकता से खाली होगी। उनमें अंजाना भय और तनाव होगा जो उनका स्वाभाविक विकास नहीं होने देगा। यह कहना है दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के आचार्य मनोविज्ञान, प्रो. धनंजय कुमार का, जो सोमवार को दैनिक जागरण कार्यालय में आयोजित पाक्षिक विमर्श की कड़ी में 'कैसे बचें स्कूली परीक्षाओं में अंकों की होड़ से?' विषय पर अपनी राय रख रहे थे। अभिभावकों की भूमिका पर चर्चा करते हुए प्रो. धनंजय ने कहा कि हर परिवार की यह सोच होती है कि उनका बेटा या बेटी अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण हो। ऐसी उम्मीद करना गैरवाजिब भी नहीं है, लेकिन उम्मीदें कई बार इतनी ज्यादा हो जाती हैं कि बच्चे के लिए वह बोझ बन जाता है। ऐसा बोझ, जो उसके स्वाभाविक मानसिक, बौद्धिक विकास की राह में रुकावट पैदा करता है। अपने पास-पड़ोस और रिश्तेदारों की बच्चों के साथ हो रही तुलना उसकी अपनी नैसर्गिक प्रतिभा, विशिष्टता को उभरने नहीं देती। नतीजतन, वह कहीं का होकर नहीं रह पाता। बच्चे कई बार उस लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाते जिसकी अपेक्षा घर वाले कर रहे होते हैं। बेहतर हो कि नंबर गेम की बजाय बच्चे की प्रतिभा को समझा जाए। जरूरी नहीं है कि जो बच्चा कम नंबर ला रहा है, उसमें प्रतिभा नहीं है। 'पियर प्रेशर' का दबाव झेल रहे बच्चों को अभिभावकों की उलाहना तनावग्रस्त कर देती है। उचित होगा कि बच्चों में उनकी सफलता-असफलता की जिम्मेदारी लेने का भाव विकसित किया जाए। उनमें निर्णय लेने की क्षमता का विकास करें। उन्हें यह बताएं कि जिंदगी में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। हर व्यक्ति के लिए एक जैसा समय नहीं रहता। न डालें अपनी आकांक्षाओं का बोझ तमाम शोध रिपोर्ट का हवाला देते हुए प्रो. धनंजय ने बताया कि बच्चों को यह बात डराती है कि यदि वे परीक्षा में अच्छा नहीं करेंगें तो वे मम्मी-पापा के सपनों को पूरा नहीं कर पाएंगे, वहीं मां-बाप सामाजिक दिखावे के चक्कर में परेशान रहते हैं कि यदि उनका बेटा या बेटी पड़ोसी के बच्चे से अच्छे अंक नहीं लाया तो उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा खत्म हो जाएगी या भविष्य में क्या होगा? इसी के चलते वे बच्चों पर लगातार अच्छे नम्बर लाने का दबाव डालते हैं। असफलता का डर बच्चे की जिंदगी को तनावपूर्ण बना देता है, तनाव उसे अवसाद में डाल सकता है। इसका यह अर्थ नहीं कि अभिभावक बच्चे को डांटे ही न। बिल्कुल डाटें-समझाएं। लेकिन इस डांट-डपट का उद्देश्य यह होना चाहिए, कि बच्चा यह समझ सके कि उसकी पढ़ाई उसके अपने भविष्य के लिए जरूरी है। अपने बच्चों को अपने अधूरे सपनों, अवास्तविक और ऊंची उम्मीदों को पूरा करने के लिए मजबूर न करें, बल्कि सकारात्मक रहते हुए उनका आत्मविश्वास बढ़ाएं ताकि वे परीक्षा में अपनी क्षमता का बेह्तर प्रदर्शन कर सकें। पहचानें क्षमता, उस अनुरूप दें आकार प्रो. धनंजय ने कहा कि दुनिया में कोई भी दो व्यक्ति एक जैसी क्षमता, सोच वाले नहीं हो सकते। सभी की अपनी विशिष्टता होती है, अपनी कमजोरी भी होती है। बच्चे से अपेक्षाएं रखना कोई गलत बात नहीं है पर वह उसकी क्षमताओं के अनुरूप होनी चाहिए। इसमें उसकी रुचि और प्रकृति का भी ध्यान रखना जरूरी है। अभिभावकों को यह तय करना होगा की वह बच्चे को कुछ सीखने के लिए स्कूल भेज रहें हैं या प्रदर्शन के लिए? हालिया बोर्ड परीक्षा परिणामों की चर्चा करते हुए प्रो. धनंजय ने कहा कि आज हिंदी और अंग्रेजी जैसे विषयों में पूरे-पूरे अंक मिल रहे हैं। पढ़ाई का कुल जमा आशय परीक्षा में अधिक से अधिक नंबर लाना भर हो गया है। ऐसे में छात्र विषय को समझने में अपना वक्त बर्बाद करने के बजाय परीक्षा के संभावित सवालों के सही जवाब कंठस्थ करने में जुटा रहता है। उन्होंने कहा कि मूल्यांकन की इस प्रणाली पर पुनर्विचार की जरूरत है। इस पद्धति का नुकसान यह है कि आपको पता नहीं होता कि आपके सर्वश्रेष्ठ घोषित बच्चों में भी सोचने, समझने, विश्लेषण करने और अपने स्वतंत्र नतीजे निकालने की क्षमता है या नहीं।
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