मनुष्य व पशुओं के लिए खतरनाक है पारथीनियम झाड़ी
सार्वजनिक स्थलों, पशु चरागाहों और सड़क की पटरियों को अमेरिकी घास लोगों को बीमार कर रही है
धनीश त्रिपाठी, गोरखपुर: सार्वजनिक स्थलों, पशु चरागाहों और सड़क की पटरियों को अमेरिका की पारथीनियम झाड़ी वाले पौधे निगलते जा रहे हैं। ये काटने पर साफ नहीं होते, खत्म नहीं होते। हालत यह है कि जलाने के बाद भी इनके बीज अंकुरित हो जाते हैं। इससे ग्रामीण क्षेत्र के चरागाहों पर संकट आ गया है। कप्तानगंज क्षेत्र में इन झाड़ियों का लगातार विस्तार हो रहा है। इनकी पत्तियों से एलर्जी की संभावना रहती है। जानवर इसे नहीं खाते। इसकी सबसे बड़ी बुराई यह है कि यह जहां होती है वहां आसपास अन्य कोई वनस्पति पैदा नहीं हो सकती। वनस्पति जगत के जानकारों के मुताबिक एस्टरेसी कुल का यह पौधा उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका से आया माना जाता है। इसकी विभिन्न प्रजातियों में से पारथीनियम हिस्ट्रीफोरस काफी प्रचलित है। इसकी पत्तियां गाजर की पत्तियों जैसी होती हैं, जिससे इसे गाजर घास भी कहते हैं। इसे भारत में सर्वप्रथम 1955 में पूना महाराष्ट्र में देखा गया था। माना जाता है कि भारत में यह अमेरिका व कनाडा से आयातित गेहूं के बीजों के साथ आया था।
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उपस्थिति व स्वभाव
कटी पत्तियों तथा सफेद फूलों वाला यह पौधा है। इसकी लंबाई 1 से डेढ़ मीटर होती है। यह पौधा 3 से 4 माह में अपना जीवन चक्र पूरा करता है । एक पौधे से बड़ी मात्रा में अत्यंत सूक्ष्म बीज उत्पन्न होते हैं । यह पूरे वर्ष उगता तथा फलता-फूलता रहता है । यह सड़क के किनारों, पुरानी पड़ी जमीनों,चरागाहों तथा खेतों में आसानी से दिखाई दे जाता है। एक बार उग जाने के बाद सरलता से समाप्त नहीं होता।
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हानिकारक प्रभाव
यह मनुष्य पशु तथा वनस्पतियों सभी के लिए अत्यंत हानिकारक है। इसमें पाया जाने वाला एरेस्क्यूटरपिन लैक्टोन नामक रसायन अपने समीपवर्ती पौधों के बीज अंकुरण व वृद्धि पर रोक लगा देता है जिससे वहां केवल इसी का साम्राज्य शेष बचता है । यह जहां होता है वहां फसल की पैदावार 30 से 40 फीसद घट जाती है । धान,ज्वार,बाजरा, मूंगफली,मक्का, सोयाबीन, मटर, तिल, अरंडी, गन्ना आदि फसलों पर अपना कुप्रभाव दिखाता है। दलहनी फसलों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणुओं की क्रियाशीलता को कम कर देता है जिससे उत्पादन प्रभावित होता है। बैंगन, मिर्च, टमाटर जैसी फसलों के परागण,अंकुरण तथा फल विन्यास को बुरी तरह प्रभावित करता है । जहां इस पौधे की अधिकता होती है वहां एलर्जी,ब्रोंकाइटिस,हाई फीवर, त्वचा पर खुजली व लाल चकत्ते,त्वचा का फटना,आंखों में जलन तथा पानी निकलना, लगातार छींक तथा खांसी आना,मुंह और नाक की झाइयों पर सूजन व खुजली आदि लक्षण दिखते हैं। पशुओं के मुंह में अल्सर तथा अत्यधिक लार निकलना, आंखों में जलन तथा खुजली आदि होते हैं। आंतरिक अंगों के ऊतकों में घाव के कारण पशुओं की मृत्यु तक संभव है।
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रोकथाम के उपाय
पौधों में फूल आने की पूर्व ही उन्हें जड़ से उखाड़ कर जला देना चाहिए। 20 फीसद साधारण नमक के घोल के छिड़काव से वृद्धि रुकती है। ग्लाइफोसेट, एट्राजिन, एक्वाक्लोर आदि खरपतवारनाशी रसायनों से भी इस का विनाश संभव है।